Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३६८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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और ध्येय तीनों एक रूप हो जाते हैं, तब सफलता प्राप्त होती है। किन्तु जब किसी रुग्ण, तपस्वी, वृद्ध आदि श्रमण की सेवा का अवसर होता है तो श्रमण परोपकार के लिए अपनी स्वाध्याय एवं ध्यान की साधना छोड़कर भी वैयावृत्य में लग जाता है । क्योंकि इस कार्य के द्वारा बह स्व-पर उभय का आत्मोद्धार करता है। इससे स्वयं उसका ही ध्यान स्थिर नहीं होता अपितु दूसरे का भी ध्यान स्थिर करने में सहायक सिद्ध होता है। श्रमणों की श्रेणियां
जैसे विद्यालय में प्रविष्ट सभी विद्यार्थी एक-समान श्रेणी में नहीं होते, वैसे ही श्रमण साधना के केन्द्र में प्रविष्ट सभी श्रमण एक समान श्रेणी में नहीं होते। यद्यपि बाह्य वेश बिन्यास, वस्त्र पात्रादि उपकरण में विशेष विभिन्नता नहीं होती किन्तु अन्तर के चरित्र में अन्तर होता है।
भगवती सूत्र के २५वें शतक, छठे उद्देशक में छः प्रकार के निर्ग्रन्थ की श्रेणियाँ, प्रज्ञप्त की गई हैं, वे हैंपुलाक, बकुश, प्रतिसेवना, कषाय-कुशील, निर्ग्रन्थ एवं स्नातक । इनमें प्रथम चावल की शालि समान जिसमें शुद्धि कम अशुद्धि अधिक, द्वितीय खेत से कटी शालिवत् शुद्धि अशुद्धि समान, तृतीय खलिहान में उफनी शालिवत् शुद्धि अधिक अशुद्धि कम, चतुर्थ छिलके सहित शालिवत, पंचम अर्ध छिलके रहित चावल वत्, षष्ठम पूर्ण शुद्ध । इनमें पुलाक, वकुश, प्रतिसेवना में दो चारित्र होते हैं—सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय तथा कषायकुशील में चार चारित्र होते हैं-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार-विशुद्धि एवं सूक्ष्मसंपराय । निर्ग्रन्थ एवं स्नातक में एक यथाख्यात चारित्र होता है । इनमें पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना में छठा, सातवां, गुणस्थान होता है । कषाय कुशील में छठे से लगा कर दसवां, ग्यारहवां गुणस्थान हो सकता है एवं निर्ग्रन्थ में बारहवाँ गुणस्थान होता है तथा स्नातक में तेरहवां चौदहवां गुणस्थान होता है।
भगवती सूत्र में आराधना के भेद से भी श्रमणों की श्रेणियाँ विभाजित की गई हैं। जैसे गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है--हे प्रभु ! आराधना कितने प्रकार की है ? भगवान महावीर ने प्रत्युत्तर दिया-है गौतम ! आराधना तीन प्रकार की है वह है, १. ज्ञानाराधना, २. दर्शनाराधना एवं ३. चारित्राराधना । २० इनमें ज्ञानाराधना तीन प्रकार की है जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट । इसी प्रकार दर्शनाराधना एवं चारित्राराधना के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञान जघन्य अष्ट प्रवचन का, मध्यम एकादश अंग का, उत्कृष्ट चौदह पूर्व का होता है। ऐसे ही दर्शन में जघन्य सास्वादन मध्यम क्षायोपशमिक, उत्कृष्ट क्षायिक सम्यक्त्व है। चारित्र में जघन्य सामायिक चारित्र, मध्यम परिहार विशुद्ध चारित्र एवं उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र । इसके पश्चात् श्री गौतम गणधर ने तीनों आराधना का फल पूछा है। उसके प्रत्युत्तर में भगवान ने कहा कि जघन्य आराधना वाले उसी भव में, तीन भव में अथवा १५ भव में अवश्य सिद्धि प्राप्त करते हैं। मध्यम आराधना वाले उसी भव में, दो भव में एवं तीसरे भव में सिद्धि प्राप्त करते हैं और उत्कृष्ट आराधना वाले साधक उसी भव में सिद्ध होते हैं अथवा दूसरे भव में तो अवश्य सिद्धि प्राप्त करते हैं। इस प्रकार साधना के अनुसार साधकों के भेद भी होते हैं ।
सभी साधकों में सर्वोत्कृष्ट सिरमौर पूर्ण निर्ग्रन्थ अरिहन्त प्रभु माने जाते हैं। यद्यपि सिद्ध भगवान उनसे भी उच्च स्थिति में हैं किन्तु मोक्ष मार्ग प्रकाशक भास्करवत् सभी आत्माओं के परमोपकारी होने से अरिहंत प्रभु का परमेष्ठी मंत्र में सर्वप्रथम स्मरण एवं नमस्कार किया गया है। अरिहंत प्रभु के लक्षणों में चौतीस अतिशय, पैतीस वाणी के एवं द्वादशमूल गुण बताये जाते हैं। ऐसे सिद्ध प्रभु में अष्ट गुण, आचार्यों के छत्तीस गुण उपाध्यायों के पच्चीस गुण एवं सर्व साधुजनों के सत्ताईस मूलगुण हैं । यद्यपि अरिहन्तों से लेकर पांचवें पद साधुजन तक के पांचों पदों में सिद्धों के अतिरिक्त श्रमण का पद तो सभी में है किन्तु उनकी श्रेणी में आकाश-पाताल का अन्तर है। फिर भी साध्य सभी का एक है। श्रमण साधना में दुःख है अथवा सुख : एक प्रश्न
श्रमणत्व की साधना का एकमात्र साध्य है सुख । सुख भी क्षणिक नहीं अपितु शाश्वत सुख । उस सुख की प्राप्ति के लिए यदि थोड़ा-सा दुःरा भी सहना पड़े तो वह नगण्य है। जैसे एक भयंकर रोग की उपशान्ति के लिए व्यक्ति कड़वी से कड़वी औषधी हँसते-हँसते पी जाता है । इंजेक्शनों की सुइयाँ अपने फूलों-सी कोमल देह में चुभाता है।
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