Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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विश्वधर्मों के परिप्रेक्ष्य में जैन उपासक का साधना पथ : एक तुलनात्मक विवेचन | ४०३
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है, अपने द्वारा गृहीत अणुव्रत मूलक चारित्र्य-पथ पर वह उत्तरोत्तर गतिशील रहे। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सब उसके लिए एक सम्बल या पाथेय है, जिनके कारण उसकी गति में अवसन्नता या कुण्ठा नहीं व्यापती।
इस प्रसंग में यह भी ज्ञातव्य है कि श्रावक के लिए प्रतिक्रमण की जो संरचना है, उसका उसके जीवन को अध्यात्म-प्रगति में अग्रसर बनाये रखने में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । आत्म-चिन्तन, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि के संपुटपूर्वक अपने द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में आचरित पाप-कार्यों के पश्चात्ताप का जो क्रम उसमें है, उपासक को पुनः उधर जाने से रोकने में निश्चय ही बड़ा उत्प्रेरक है तथा उसे आत्म-प्रकर्ष की ओर ले जाने में सहायक । उपसंहार
वैदिक बौद्ध, आदि अनेक धर्मों की साधना-पद्धतियों के सन्दर्भ में जैन गृही उपासक की साधना पर अनेक दृष्टियों से प्रस्तुत निबन्ध में विचार उपस्थित किये गये हैं । इस सन्दर्भ में यह कहना अतिरंजित नहीं होगा कि गृही की आचार-संहिता में परिष्कार-संयोजन की दृष्टि से साधना-जगत् में जैन आचार-संघटकों की निःसन्देह यह अप्रतिम देन है।
गृही उपासक की आचार-संघटना में दार्शनिक किंवा तात्त्विक दृष्टिकोण के साथ-साथ मनोवैज्ञानिकता का भी पूरा ध्यान रखा गया है, जिससे वह (आचार-संहिता) केवल आदर्श रूप न रहकर व्यवहार्य हो सके, उपासक के जीवन में क्रमशः संयम की दृष्टि से एक व्यवस्था, नियमानुवर्तिता तथा प्रगतिशीलता आ सके । विकल्प या अपवादस्वीकार की अपनी अनुपम सरणि इसका उदाहरण है। वस्तुतः कोई भी दर्शन सही माने में तभी सार्थक कहा जा सकता है, जब वह अपने अनुयायियों के जीवन में अपना क्रियान्वयन पा सके। वैसे वैदिक ऋषियों, बौद्ध आचार्यों व भिक्षुओं ने भी जीवन-शुद्धि या आत्म-विकास के सन्दर्भ में काफी महत्वपूर्ण बातें कही हैं पर, जब हम दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक दृष्टि से तुलनात्मक रूप में विचार करते हैं तो निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि इन चिन्तनधाराओं में गृही की आचार-संहिता के प्रसंग में जैन चिन्तन का अपना एक वैशिष्टय है। सिद्धान्त और व्यवहार पूर्व व पश्चिम की तरह विपरीत मुखी न रहकर समन्वय एवं सामंजस्य के सूत्र में पिरोये रहें, इसे आवश्यक मान जैन मनीषियों ने सिद्धान्त-सत्य के साथ-साथ व्यवहार-सत्य या आचार-सत्य का विविध रूपों में तलस्पर्शी प्रतिपादन किया है।
जैनधर्म में स्वीकृत व्रत-संघटना पर और अधिक सूक्ष्मता तथा गम्भीरता से विचार किया जाना अपेक्षित है। क्योंकि वहाँ जिन तथ्यों का स्वीकार है, वे किसी वर्ग-विशेष से सम्बद्ध न होकर विश्व मानवता से सम्बद्ध है। युगीन सन्दर्भ में आज उनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्वजनीन व्याख्या की जानी चाहिए। यदि समीक्षक विद्वानों एवं बहुश्रुत श्रमणों का इस ओर ध्यान गया तो आशा की जा सकती है कि इस सम्बन्ध में अनेक मनोवैज्ञानिक निष्कर्ष प्रकट होंगे, जो विश्व में संप्रवृत्त आचार परिष्कार तथा जन-जन के आध्यात्मिक जागरण सम्बन्धी अभियानों के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध होंगे।
Coup विटना
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१ यजुर्वेद ३६, २३ । २ तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली १, अनुवाक ११ ३ तैतिरीयोपनिषद् वल्ली १, अनुवाक ११ ४ मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ६८ ५ मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ६६
मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ७० ७ मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ६२ ८ गीता अध्ययन २, श्लोक ४७, ४८ ६ वैशेषिक दर्शन १.१.२ १० ईसाई धर्म क्या कहता है ? पृष्ठ २०-२२
११ सिक्ख धर्म क्या कहता है ? पृष्ठ १५ १२ पारसी धर्म क्या कहता है ? पृष्ठ १३ १३ इस्लाम धर्म क्या कहता है ? पृष्ठ १० १४ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १.१ १५ हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।
देशसर्वतोऽणुमहती। -तत्त्वार्थसूत्र ७. १, २ १६ तत्त्वार्थसूत्र ७.२० १७ तत्त्वार्थसूत्र ७, २१-२४ १८ वसूनन्दि-श्रावकाचार ५६
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