Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४०२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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पौषधोपवास व्रत-इस व्रत का आशय जीवन में तितिक्षा-क्रम को बढ़ाना है । मौगिक जीवन से सम्पूर्ण विरति सध सकने के चरम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के अभ्यास का यह एक प्रशस्त चरण है । आहार, देह-सज्जा अब्रह्मचर्य तथा आरम्भ-समारम्भ का त्याग-ये इसके अन्तर्गत हैं।
वाह्य पदार्थों के परित्याग के पीछे मुख्य भाव यह है कि व्यक्ति अधिकाधिक आत्मानुगत हो सके । जीवन में 'स्व' और 'पर' इन दो का ही संघर्ष है । मानव जितना परमुखापेक्षी होता है, उतना ही वह 'स्व' से विमुख होता जाता है । साधना की चरम सिद्धि तो वह है, जहाँ 'स्व' के अतिरिक्त समग्र पर-भाव विजय पाले । पर-भाव से क्रमश: हटते जाना, स्व-भाव की ओर बढ़ते जाना-यह एक सरणि है, जिससे साधक अपनी आखिरी मंजिल तक सहजतया पहुंच सकता है। पौषधोपवास व्रत, चाहे अल्पसामयिक ही सही, इस दिशा की ओर एक जीवित अभियान है। इसकी संरचना के पीछे भी एक बहुत ही चिन्तनपूर्ण मनोवैज्ञानिक आधार रहा है। क्योंकि कुछ असाधारण व्यक्तियों की बात और है, साधारण व्यक्ति सहसा किसी परमोच्च ध्येय या स्थान को नहीं पा सकता । उसके लिए क्रमिक विकासमय सोपान-मार्ग चाहिए, जिससे वह अभ्यासनिरत होता हुआ क्रमशः उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगामी होता जाए ।
अतिथिसंविभाग-व्रत-इस शिक्षा-व्रत में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना अन्तनिहित है। अतिथि शब्द के साथ यहाँ संविभाग शब्द का प्रयोग हुआ है, दान का नहीं इसका आशय यह है कि अतिथि का भी एक प्रकार से एक गृहस्थ के यहाँ अपना भाग है, इसलिए गृही उसे जो देता है, उसमें विशेषतः श्रद्धा और आदर का भाव बना रहता है। धार्मिक दृष्टि से यह पुण्यबन्ध का हेतु तो है ही पर वस्तुतः इसका शब्द-चयन बड़ा मनोवैज्ञानिक है । इससे न तो देने वाले में अहंभाव उत्पन्न होता है और न लेने वाले में किसी तरह का हीन भाव । अपरिचित का ससम्मान सहयोग करने की बहुत ही स्वस्थ परम्परा यह है । आश्चर्य है, आध्यात्मिक के साथ-साथ कितनी मनोवैज्ञानिक व सामाजिक सूझ-बुझ इसके संरचयिताओं में थी।
जैन परम्परा की दृष्टि से इस व्रत के अन्तर्गत दो प्रकार के गृहीता आते हैं-(१) श्रमण या भिक्ष, (२) अन्य आगन्तुक, जिनके आने की कोई तिथि या निश्चित समय नहीं अर्थात् वे अपरिचित व्यक्ति, जो चाहे जब आ जाएं, श्रमण तो ठीक हैं पर सामान्य आगन्तुक जनों का सेवा-सत्कार करना भी व्रतात्मक साधना में स्वीकृत किया गया है, यह विशेष महत्त्व की बात है। सप्त कुव्यसन : प्रत्याख्यान : आत्म-संयमन
कुत्सित कार्यों से बचाये रखने के लिए जैनाचार्यों ने सात कुव्यसनों के त्याग का विशेष उपदेश किया है। कहा गया है
जयं मज्जं मंसं वेसा पारद्धिचोर परयारं ।
दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ॥१८ द्यूत (जुआ), मदिरा माँस, वेश्या, आखेट, चोरी तथा परस्त्री-इनका सेवन ये सात कुव्यसन हैं । ये दुर्गतिगमन के हेतु हैं।
ऊपर श्रावक के व्रत, आचार आदि का जो विवेचन हुआ है, उसके परिप्रेक्ष्य में यदि इन कुव्यसनों पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि उन्हीं का कुछ विशदीकरण, स्पष्टीकरण या विस्तार इनमें है। कुत्सित कार्यों के वर्जन द्वारा सात्त्विक कार्यों के स्वीकार की ओर गृही साधक को प्रवृत्त करने का इनमें एक मनोवैज्ञानिक प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है । संक्षेप में कहा जाए तो बात लगभग एक जैसी है पर, ग्राह्यता, अग्राह्यता के आशय से विभिन्न आकर्षक रूपों में उसे प्रकट किया गया है, जो वास्तव में बहुत उपयोगी है । साहित्य में जहाँ पोनःपुन्य अनाहत है, आचार में वह नितान्त उपयोगी है । क्योंकि मनुष्य स्वभावतः सुविधाप्रिय है । जहाँ भी व्रताचरण में उसे कठिनाई लगती है, उसके विचलित होने का भय बना रहता है । बार-बार कहे जाते रहने से वह फिसलन की बेला में जागरूक रह सकता है।
और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो इसे यों समझा जा सकता है कि साधक को प्रतिक्षण जागरूक तथा व्रत-पालन में सन्नद्ध बनाये रखने के लिए अनेक प्रकार से उसे शिक्षाएं दी जाती रही हैं। प्रकार की भिन्नता या विविधता से निरूपण या कथन अनाकर्षक नहीं बनता । इसीलिए कहीं मूल गुणों के रूप में, कहीं कुव्यसनों के रूप में, कहीं अतिचारों के रूप में कहीं गुणवतों के रूप में, कहीं शिक्षाव्रतों के रूप में श्रावक को उपदिष्ट किया जाता रहा है, जिसका एक ही अभिप्राय
Roho
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