Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
३६४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
००००००००००००
००००००००००००
E
CCE
पूण
.... HARYANA
NICINIK
.......
AUDA
तपस्या के पश्चात् यह अनुभव किया कि जन-साधारण के लिए वही धर्म उपयोगी होगा, जो न अत्यन्त कड़ा हो और न अत्यन्त सरल । क्योंकि अत्यन्त कठोर या ऊँचे नियमों का परिपालन उनसे शक्य नहीं होगा तथा अत्यन्त साधारण कोटि के नियमों से कुछ विशेष सधेगा नहीं। चार आर्य सत्य
___ भगवान बुद्ध ने जिस मध्यम-मार्ग मूलक धर्म की अवतारणा की, वह निम्नांकित वास्तविकताओं पर आधृत है-जगत् में दुःख है, जिसमें जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, प्रियजनों का वियोग, अप्रिय पदार्थों का संयोग, अभीप्सित का अलाभ इत्यादि का समावेश हो जाता है।
दुःख की गहराई में जाते हैं तो पता चलता है कि उसका कोई न कोई कारण अवश्य है । कारण के जान लेने पर यह सम्भावित होता है कि उस दु:ख को मिटाया जा सकता है। जब मिटाया जा सकता है तो उसका कोई विधि-क्रम भी होना चाहिए।
इन्हीं वास्तविकताओं को भगवान बुद्ध ने चार 'आर्य सत्य' के नाम से अभिहित किया
१. दुःख, २. दुःख-समुदय, ३. दुःख-निरोध, ४. दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद्। कहा गया है, यह बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म है, क्षेम है, उत्तम शरण है । इसे अपनाने से प्राणी सब दुःखों से छूट जाता है, जैसे
यो च बुद्धं च धम्म च संघं च सरणं गतो। चत्तारि अरियसच्चानि सम्मप्पञ्त्राय पस्सति । दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कम । अरियं चट्ठङ्गिकं मग्गं दुक्खूपसमगामिनं ।। एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं ।
एतं सरणमागम्म सव्वदुक्खा पमुच्चति ।। इन गाथाओं में चार आर्य-सत्यों की चर्चा के साथ-साथ अष्टांगिक आर्य मार्ग की ओर संकेत किया गया है। उसे दुःख का उपशामक कहा गया है। अष्टांगिक मार्ग
चौथे आर्य-सत्य (दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद्) के अन्तर्गत भगवान बुद्ध ने एक व्यवस्थित विधिक्रम या मार्ग दिया है, जिसका अवलम्बन कर साधक दुःख से छुटकारा पा सकता है। वही अष्टांगिक आर्य मार्ग है, जिसके निम्नांकित आठ अंग हैं
१. सम्यक ज्ञान-चार आर्य सत्यों को भली-भांति समझ लेना।
२. सम्यक् संकल्प-समझ लेने के बाद मन में जमाने की बात आती है। वैसा किये बिना समझना विशेष हितकर नहीं होता। समझी हुई बात को मन में जमाने के लिए पक्का निश्चय करना पड़ता है। इसी का नाम सम्यक् संकल्प है।
३. सम्यक वचन--सत्य बात कहना।
४. सम्यक् कर्मान्त-हिंसा, शत्रता, दूषित आचरण आदि से बचते रहना । इन्हें कर्मान्त इसलिए कहा गया है कि ऐसा करने से कर्मों का अन्त होता है।
५. सम्यक् आजीव-न्याय-नीति पूर्वक आजीविका चलाना। ६. सम्यक् व्यायाम-सात्त्विक कर्मों के लिए निरन्तर उद्यमशील रहना । ७. सम्यक् स्मृति-लोभ आदि वृत्तियां चित्त को सन्तप्त करती रहती हैं, उनसे बचना । ८ सम्यक् समाधि-रागात्मक व द्वेषात्मक वृत्तियों से चित्त को हटाकर एकाग्र करना।
यह अष्टांगिक मार्ग बौद्ध धर्म में सर्वत्र स्वीकृत है । पर, हीनयान सम्प्रदाय के बौद्ध इस पर विशेष जोर देते हैं । महायान सम्प्रदाय में अष्टांगिक मार्ग का स्वीकार तो है पर उसका विशेष बल पारमिता-मार्ग पर है।
-
ORG
0000
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.lainelibrary.org
-
-