Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३६० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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द्वारा अभिमत गृहस्थ की साधना पद्धतियों के परिप्रेक्ष्य में जैन गृही या श्रावक की साधना पर तुलनात्मक दृष्टि से विवेचन किया जायेगा। वैदिक धर्म में गृहस्थाश्रम
वैदिक धर्म का आशय उन धर्म-संप्रदायों से है, जिनका मुख्य आधार वेद हैं तथा दार्शनिक दृष्टि से जो पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा (वेदान्त), सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक आदि से सम्बद्ध हैं। वैदिक धर्म मनुष्य के जीवन को चार भागों में बाँटता है, जिन्हें आश्रम कहा जाता है। आश्रम का सामान्य अर्थ आश्रय, ठहरने का स्थान या विश्राम करने का स्थान है। आश्रम चार हैं-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास । पच्चीस वर्ष की आयु तक गुरुकुल में ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्याभ्यास का समय इस आश्रम के अन्तर्गत है। तात्पर्य यह हुआ कि तब तक व्यक्ति सांसारिक जीवन में सफलता पूर्वक चलते रहने की क्षमताएँ अजित कर चुकता है। फलत: उसका लौकिक जीवन भारभूत न होकर आनन्दमय होता है। इससे आगे पचास वर्ष तक की आयु का कार्यकाल गृहस्थ आश्रम में लिया गया है, जिस पर हम आगे विशेष रूप से प्रकाश डालेंगे। पचास से पचहत्तर वर्ष तक का काल वानप्रस्थ आश्रम का है, जो एक प्रकार से संन्यास के पूर्वाभ्यास का समय है। इससे आगे का सौ वर्ष तक का समय संन्यास का माना गया है।
वेद के ऋषि के निम्नांकित शब्द इस बात के द्योतक हैं कि तब 'शतायुवै पुरुषः' के अनुसार मानव सौ वर्ष के जीवन की कामना करता था :
___ “पश्येम शरदः शतम् । जीवेम शरदः शतम् । शृणुयाम शरदः शतम् । प्रब्रवामशरद : शतम् । अदीना: स्याम शरदः शतम् । भूयश्च शरदः शतात् ॥'
अर्थात् सौ वर्ष तक हमारी चक्षु इन्द्रिय कार्यशील रहे, सौ वर्ष तक हम जीएं, सौ वर्ष तक श्रवण करें, सौ वर्ष तक बोलें, सौ वर्ष तक अदीन भाव से रहें । इतना ही क्यों, हम सौ से भी अधिक समय तक जीएं।
प्राचीन काल के आयु अनुपात के अनुसार यह वर्ष सम्बन्धी कल्पना है। इसलिए हम इसे इयत्ता मूलक निश्चित नहीं कह सकते, आनुपातिक कह सकते हैं । गुरुकुल से निर्गमन : संसार में आगमन
जब ब्रह्मचारी अपना विद्याध्यन तथा भावी जीवन की अन्यान्य तैयारियाँ परिपूर्ण कर पुन: संसार में अर्थात् पारिवारिक या सामाजिक जीवन में आने को उद्यत होता है, तब वैदिक ऋषि उसे जो शिक्षाएँ देता है, वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उनमें उसके भावी लौकिक जीवन के लिए बड़े सुन्दर आदेश-निर्देश हैं । वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं :
"वेद मनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति--सत्यं वद, धर्म चर, स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्यान्य प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सी: । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । देव पितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् ।"२
. ब्रह्मचारी ! तुम सांसारिक जीवन में जा रहे हो । मैं जो कह रहा हूँ, उन बातों पर पूरा ध्यान रखना-सदा सच बोलना, धर्म का आचरण करना। जो तुमने पढ़ा है, उसमें प्रमाद मत करना, उसे भूल मत जाना। आचार्य को दक्षिणा के रूप में वाञ्छित धन देकर, गृहस्थ में जाकर सन्तति-परम्परा का उच्छेद मत करना-उसे संप्रवृत्त रखना। - ऋषि शिष्य को सदाचरण में सुस्थित करने के हेतु पुनः कहता है-सत्य में प्रमाद मत करना, धर्म में प्रमाद मत करना, पुण्य कार्यों में प्रमाद मत करना, ऐश्वर्यप्रद शुभ कार्यों में प्रमाद मत करना, स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद मत करना, देव-कार्य तथा पितृ-कार्य में प्रमाद मत करना।
"ऋषि आगे कहता है
"मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्य देवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि , नो इतराणि । यान्यस्माकम् सुचरितानि, तानि त्वयोपास्यानि , नो इतराणि । ये के चास्म
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