Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
जैन साधना में तप के विविध रूप | ३७३
००००००००००००
००००००००००००
SA
FULL
ल
NEL .......
UTATI
HTTA
उपरोक्त पाँचों त्यागों को लेने के लिये निम्न पाठ बोलते हैं-उग्गएसूरे........... (प्रत्याख्यान का नाम) पच्चक्खामि चउन्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइम""..." (आगारों के नाम) वोसिरामी, जहाँ प्रत्याख्यान देने वाले गुरु महाराज या बड़े श्रावक जी हों तो लेने वाले को वोसिरामि बोलना चाहिये क्योंकि देने वाले वोसिरे शब्द का उच्चारण करते हैं । स्वयं ही प्रत्याख्यान लेने पर वोसिरामि शब्द का उच्चारण करना है।
६. एगासणं (एकासन)-पौरिसी या दो पौरिसी के बाद दिन में एक बार एक ही आसन से भोजन करने को एकासन प्रत्याख्यान कहते हैं इसमें पूर्वोक्त सात तथा सागारिआगारे णं आगार विशेष होता है।
७. बे आसणं (दो आसन)-पौरिसी या दो पौरिसी के बाद दिन में एक बार दो आसन से भोजन करने को बे आसणं प्रत्याख्यान कहते हैं दिन में दो बार भोजन के सिवाय मुंह में कुछ न खाने को भी बे आसण प्रत्याख्यान कहते हैं इसमें पूर्वोक्त आठ आगार होते हैं। एगासन और बेआसन में चारों आहारों में से धारणा पूर्व त्याग किया जाता है यानि एकासन और बे आसन के बाद स्वादिम और पानी लेना हो तो दुविहंपि कहना चाहिये।
८. एगठ्ठाणं (एक स्थान)-एगलठाणा और एकासना के त्याग मिलते-जुलते हैं परन्तु आउट्ठण पसारेणं का आगार नहीं रहता है अर्थात् मुंह और हाथ के सिवाय अंगोपांग का संकोचन-प्रसारण नहीं करते हैं। 'सव्व समाहिवत्तियागारेणं' रोगादि की शान्ति के लिये भी औषधादि नहीं लेवे इस आगार का भी पालन यथासम्भव किया जाता है।
६. तिविहार उपवास-पानी के सिवाय तीन आहारों का त्याग करने पर तिविहार उपवास होता है। तिविहार उपवास में पानी के कुछ विशेष आगार होते हैं। जैसे लेप वाला दूध या छाछ के ऊपर वाला, अन्न के कणों से युक्त तथा धोवन आदि । इसमें आगार सं० १, २, ६, ७ और ११वां होते हैं ।
१०. चउविहार उपवास-चारों आहारों का त्याग करने पर चउविहार उपवास होता है इसमें आगार सं० १, २, ६, ७, ११ होते हैं ।
११. अभिग्रह-उपवास के बाद या बिना उपवास के भी अपने मन में निश्चय कर लेना कि "अमुक बातों के मिलने पर ही पारणा या आहार ग्रहण करूंगा" इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की प्रतिज्ञा विशेष को अभिग्रह कहते हैं। सारी प्रतिज्ञाएँ मिलने पर ही पारणा किया जाता है। इसमें आगार सं० १, २, ६, ७ होते हैं। अभिग्रह में जो बातें धारण करनी हों उन्हें मन में या वचन द्वारा गुरु के समक्ष निश्चय करके दूसरों के विश्वास के लिये एक पत्र में लिख देना चाहिये । प्रभु महावीर को चन्दनबाला द्वारा दिया गया उड़द के बाकुले का दान अभिग्रह का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
१२. दिवस चरिम-सूर्य अस्त होने से पहले से दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों या तीनों आहारों का त्याग करना दिवस चरिम प्रत्याख्यान है इसमें अभिग्रह के चारों आगार हैं।
१३. भव चरिम (यावज्जीवन का त्याग) त्याग करने के समय से लेकर यावज्जीवन तीनों या चारों आहारों का त्याग करना भव चरिम प्रत्याख्यान कहलाता है । इसमें पूर्वोक्त चारों आगार हैं किन्तु घटाये जा सकते हैं ।
१४. आयम्बिल-पौरिसी या दो पौरिसी के बाद दिन में एक बार नीरस और विगयों से रहित आहार करने को आयम्बिल (आचाम्ल) प्रत्याख्यान कहते हैं इसमें आगार सं० १, २, ६, ७, ११, १२, १३ और १४ होते हैं ।
१५. नीवी-(निविगइयं) विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों को विकृति (विगय) कहते हैं । दूध, दही आदि भक्ष्य तथा मांसादि अभक्ष्य विकृतियाँ हैं । श्रावक के अभक्ष्य विकृतियों का तो त्याग ही होता है और भक्ष्य विकृतियों को छोड़ना निर्विकृतिक (निव्वीगय) तप कहलाता है। इसमें आयम्बिल के अलावा पडुच्चमक्खिएणं आगार विशेष होता है। किसी विगय का त्याग करने पर विगईप्रत्याख्यान तथा समस्त विगय का त्याग करने पर निविगइ प्रत्याख्यान कहते हैं।
१६. गंठि सहियं मुट्ठिसहियं-चद्दर डोरा आदि के गांठ देकर जहाँ तक न खोले वहाँ तक चारों आहारों के त्याग करने पर गंठि सहियं तथा मुट्ठी के बीच अंगूठा रहे वहाँ तक आहार त्याग को मुट्ठी सहियं कहते हैं । अंगूठी आदि के आगार रहते हैं। ऐसे ही संकल्प अन्य भी होते हैं ।
आजकल घण्टे-घण्टे के प्रत्याख्यान भी किये जाते हैं। छोटी डायरियों में पन्नों पर कई खाने बनाकर उनमें घण्टों के त्यागानुसार चिह्न लगा देते हैं, बाद में उन्हें जोड़ लिया जाता है । जिह्वा की स्वाद-लोलुपता पर आंशिक नियंत्रण का यह भी बेजोड़ साधन है ।
TOD
......"
AA
DavaSCOMMitMIMES
Came
5.
8
-4-/
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org