Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
११
परम श्रद्धेय श्री जोधराजजी महाराज
000000000000
000000000000
100000000=
पूज्य आचार्य श्री एकलिंगदासजी महाराज के योग्यतम शिष्य-प्रशिष्यों में एक नाम परम श्रद्धेय श्री जोधराज । जी महाराज का भी आता है।
श्री जोधराजजी महाराज का जन्म देवगढ़ के निकट तगड़िया ग्राम में सं० १६४० के आसपास हुआ था। इनकी माता का नाम चम्पाबाई तथा पिता श्री मोतीसिंहजी थे । ये क्षात्रानुवंशीय थे। बाल्यावस्था में ही माता-पिता का वरदहस्त उठ जाने से श्री जोधराजजी को संसार की अस्थिरता का भान हो गया।
आत्मकल्याणी सुन्दर भावना के अनुरूप आप किसी सुयोग्य गुरु की खोज में थे।
संयोगवश राजकरेड़ा में किसी रामस्नेही सन्त से आपका सम्पर्क हो गया । त्याग की उत्कृष्ट भावना से वहीं राम भजन करने लगे।
वैराग्य के मार्ग में जो तत्त्व चाहिए, वह उन्हें मिल नहीं पाया तो सन्तुष्टि नहीं हुई । वैराग्य में भी एक भूख जगती है, वह जिज्ञासा कहलाती है । निरन्तर मोक्ष मार्ग को जानना और साधना साधक का लक्ष्य रहता है।
रामस्नेही सन्त ने स्वयं जोधराज की आन्तरिक भावना को समझा। उन्होंने ऐसा सत् परामर्श दिया, जिसने श्री जोधराज के जीवन में ज्योति जगादी। उन्होंने श्री जोधराजजी को पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज, जो उन दिनों वहीं विराजमान थे, के पास जाने के लिये कहा। उन्होंने कहा कि जैन मुनि नितान्त आत्मसाधक होते हैं, वहाँ तुम्हें आत्म लाभ प्राप्त हो सकेगा।
एक रामस्नेही सम्प्रदाय का सन्त एक मुमुक्ष को जैन मुनि के पास भेजे, यह साम्प्रदायिक सद्भाव का अद्भुत नमूना है।
युवक जोधराजजी ने इस योग्य परामर्श का तत्काल अनुपालन किया और पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज के पास पहुंचे। यहाँ मुनिचर्या और आत्म-साधना का सुन्दर वातावरण देखकर श्री जोधराजजी को बड़ा आनन्दानुभव हुआ।
_ श्री जोधराजजी को ऐसा लगा मानों जिसे खोज रहे थे, वह मिल गया। वे तन्मय होकर वहाँ ज्ञानाराधना करने लगे।
मुनिचर्या आदि का समुचित ज्ञान हो जाने पर सं० १९५६ मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी के दिन रायपुर में श्री जोधराजजी ने आत्मकल्याण स्वरूप जैनेन्द्रीया दीक्षा ग्रहण की। आपने श्री कस्तुरचन्दजी महाराज का शिष्यत्व ग्रहण किया। श्री कस्तूरचन्दजी महाराज पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज के शिष्य थे ।।
पूज्य श्री के सान्निध्य में ज्ञानाराधना के साथ तपाराधना का क्रम भी चलता रहा । 'अनमोल रत्न' के लेखक के अनुसार स्वामीजी सायंकाल को उष्ण आहार नहीं करते थे। यह क्रम चौदह वर्ष चला । एकान्तर, बेला, तेला, पाँच, आठ आदि तपश्चर्या की आराधनाएँ भी की।
श्री जोधराजजी महाराज अच्छे वक्ता और गुरुसेवानिष्ठ थे। स्व० श्री कन्हैयालालजी महाराज आपके ही शिष्य थे। आपने अनेकों आत्माओं को सन्मार्ग में स्थापित किया।
कुल ४२ वर्ष संयम पालन कर वि० सं० १९६८ आश्विन शुक्ला पंचमी शुक्रवार को कुंवारिया में आपका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ ।
. .
HOOR
deaionistemation
-oraeadersone