Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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भगवान महावीर का तत्ववाद | २७३
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हाँ, भन्ते ! वैसा ही है, जैसा आप कह रहे हैं।
कालोदायी ! तुम्हारी जिज्ञासा है कि मैं पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करता हूँ, वह कैसे ? कालोदायी ! तुम्ही बताओ, पंचास्तिकाय हैं या नहीं ? यह प्रश्न किसको होता है, चेतन को या अचेतन को? आत्मा को या अनात्मा को?
भन्ते ! आत्मा को होता है ।
कालोदायी ! जिसे तुम आत्मा कहते हो उसे मैं जीवास्तिकाय कहता हूँ। जीव चेतनामय प्रदेशों का अविभक्त काय है, इसलिए मैं उसे जीवास्तिकाय कहता हूँ।
कालोदायी ! तुम मेरे पास आये हो, कैसे आये ? मन्ते ! चलकर आया है। क्या तुम जानते हो कि मछली पानी में तैरती है ? हाँ, भन्ते ! जानता हूँ। तैरने की शक्ति मछली में है या पानी में ? भन्ते ! तैरने की शक्ति मछली में है। तो क्या वह पानी के बिना तैर सकती है ? नहीं भन्ते ! ऐसा नहीं होता।
मछली को तैरने के लिए पानी की अपेक्षा है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल को गति करने के लिए गति तत्त्व की अपेक्षा है। जो द्रव्य जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षित सहयोग करता है, उसे मैं धर्मास्तिकाय कहता हूँ। मछली पानी के बाहर आती है और भूमि पर आ स्थिर हो जाती है । स्थिर होने की शक्ति मछली में है किन्तु भूमि उसे स्थिर होने में सहारा देती है । जीव और पुद्गल में स्थिति की शक्ति है पर उनकी स्थिति में जो अपेक्षित सहयोग करता है, उस स्थिति तत्त्व को मैं अधर्मास्तिकाय कहता हूँ।
गति तत्त्व और स्थिति तत्त्व दोनों अस्तिकाय हैं। इनकी अविभक्त प्रदेश-राशि आकाश के बृहद् भाग में फैली हुई है । आकाश के जिस खण्ड में ये हैं, वहाँ गति है, स्पंदन है, जीवन है और परिवर्तन है। इस आकाश-खण्ड को मैं लोक कहता हूँ । इससे परे जो आकाश-खण्ड है, उसे मैं 'अलोक' कहता हूँ। लोक का आकाश-खण्ड सान्त है, ससीम है । अलोक का आकाश-खण्ड अनन्त है, असीम है।
तुम देख रहे हो कि यह पेड़, यह मनुष्य, यह मकान कहीं न कहीं टिके हुए हैं । तुमने देखा है कि पानी घड़े में टिकता है । घड़ा फूट जाता है, पानी ढुल जाता है। पानी को टिकने के लिए कोई आधार चाहिए। इसी प्रकार द्रव्यों को भी आधार की अपेक्षा होती है । एक द्रव्य अस्तित्व में है, उसमें आधार देने की क्षमता है, उसे मैं आकाशास्तिकाय कहता हूँ।
तुम देख रहे हो सामने एक पेड़ है । क्या देख रहे हो? मन्ते ! उसका हरा रंग देख रहा हूँ। क्या उसकी सुगन्ध नहीं आ रही है ? भन्ते ! आ रही है। क्या इसमें रस नहीं है ? भन्ते ! है। इसकी कोमल पत्तियों का स्पर्श मन को आकर्षित नहीं करता? भन्ते ! करता है। कालोदायी ! जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होता है, उसे मैं पुद्गलास्तिकाय कहता हूँ।
मैंने अस्तिकायों को जाना है, देखा है । इसीलिए मैं पाँच अस्तिकायों का प्रतिपादन करता हूँ । इनका प्रतिपादन मैं किसी शास्त्र के आधार पर नहीं कर रहा हूँ, किन्तु अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर कर रहा हूँ।
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