Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आधुनिक विज्ञान और जन मान्यताएँ | २८३
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है । इस सम्बन्ध में किये जाने वाले प्रयोग निश्चित स्थिति-माध्यम के अस्तित्व को प्रतिष्ठित करते हैं। वर्तमान में गति-माध्यम के रूप में प्रस्तावित ईथरवाद क्वान्टम सिद्धान्त के कारण तेजोहीन होता जा रहा है। इसलिए आज का वैज्ञानिक निश्चित रूप में इन माध्यमों को स्वीकृति देने में अपने को असमर्थ पाता है। आकाश और काल द्रव्य
जनदर्शन में प्रतिपादित छः मूल द्रव्यों में आकाश और काल की भी गणना है । समस्त द्रव्यों को अवगाहन देने वाला आकाश द्रव्य दो प्रकार का है-अन्य द्रव्यविहीन अलोकाकाश और द्रव्य-युक्त लोकाकाश । तिलों में तेल के समान धर्म-अधर्मादि द्रव्य लोकाकाश में औपचारिक रूप से व्याप्त रहते हैं। आधुनिक विज्ञान लोकाकाश को तो मान्यता देता प्रतीत होता है लेकिन अलोकाकाश के विषय में उसका निष्कर्ष नकारात्मक है।
प्रारम्भ में आकाश द्रव्य को गति-माध्यम के ईथर के समकक्ष मानने की बात चली थी क्योंकि उसे भी अमूर्तिक ही माना गया है। लेकिन अब यह स्पष्ट है कि आकाश और ईथर दो अलग द्रव्य हैं। आकाश में ईथर व्याप्त रहता है। जैन मान्यता के अनुसार आकाश अनन्त है लेकिन लोकाकाश सान्त है। विज्ञान के अनुसार लोक प्रसरणशील होते हुए भी सान्त है और उसके बाहर कुछ नहीं है। जैन मान्यता में विश्व की प्रसरणशीलता भी समाहित नहीं होती। लेकिन यदि प्रसरणशीलता की बात सत्य है, तो आकाश के जिस क्षेत्र में प्रसरण होता है, वही अलोकाकाश होगा। इस प्रकार आकाश-द्रव्य के सम्बन्ध में वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में पुनर्विचार की आवश्यकता है।
व्यवहार और निश्चय के रूप में काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है। वस्तुत: वस्तुओं के उत्पाद, व्यय एवं धौव्यत्व का परिचायक काल ही है। अपने दैनिक जीवन में हम समय के महत्त्व से परिचित हैं । शास्त्रों के अनुसार काल केवल सहकारी कारण है, उपादान या निमित्त नहीं । यह स्वयं अक्रिय, अनेक एवं अपरिणामी है । अमूर्त होने के बावजूद भी लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में काल-परमाणु विद्यमान है। एक परमाणु दूसरे परमाणु के समीप जाने में जितना समय लेता है, वह काल का यूनिट कहलाता है। वस्तुतः कई दर्शनों और दार्शनिकों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना है, वह सूर्य-चन्द्रादि की गति पर आधारित एक व्यवहार है । भूत, भविष्य और वर्तमान भी व्यवहार मात्र हैं। लेकिन जैन मान्यता काल को ऊर्ध्वप्रचयी आयाम के रूप में निरपेक्ष रूप में स्वीकृत करती है । चार आयामों के विश्व में चौथा आयाम काल ही माना गया है । वैज्ञानिक दृष्टि से काल की द्रव्य रूप में सत्ता स्वीकार नहीं की जाती, यद्यपि सभी प्रकार के व्यवहारों में काल के उपयोग के बिना काम नहीं चलता । 'कालाणु' की बात तो और भी जटिल प्रतीत होती है । वस्तुतः निश्चय काल को मान्यता नहीं है, व्यवहार काल को अवश्य ही मान्यता प्राप्त है। काल-द्रव्य सम्बन्धी समस्त विवरण के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा सही निष्कर्ष निकालने की बड़ी आवश्यकता है। यह अध्ययन इसलिए भी आवश्यक है कि श्वेताम्बर परम्परा में काल द्रव्य के स्वतंत्र अस्तित्व पर विवाद है। जीव-विज्ञान
त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार चौरासी लाख योनियों में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव पाये जाते हैं । विज्ञान सभी योनियों या सीशीज की संख्या बीस लाख तक ला पाया है। कुछ लोगों ने स्पीशीज की संख्या एक करोड़ तक होने का अनुमान किया है। इससे अधिक योनियाँ वनस्पतिकायिकों की मानी गई हैं।
जीव को दो प्रकार से अभिलक्षणित किया गया है-पौद्गलिक और अपौद्गलिक । पौद्गलिक लक्षणों में असंख्यात प्रदेशिकता, गतिशीलता, परिवर्तनशीलता, देहपरिमाणकता, कर्म-बंध और नानात्व समाहित है । अभौतिक लक्षणों में अविनाशित्व, अमूर्तत्व और चैतन्य का समावेश है। आधुनिक विज्ञान सभी मौतिक लक्षणों को स्वीकार करता है और वह तो चैतन्य को भी भौतिक ही मानता प्रतीत होता है। उसका कारण यह है कि रूस, अमरीका, ब्रिटेन और इटली के वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में जीवित कोशिकाओं का संश्लेषण कर लिया है और उनके विकास व विनाश की सारी प्रक्रिया का सूक्ष्म निरीक्षण किया है। परखनली में तैयार किये जाने वाले जीवों से भी चैतन्य की भौतिकता सत्यापित होती दिखती है । वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है जैसे चैतन्य एक प्रकार की क्रान्तिक ऊर्जा हो जो जीवन की जटिल संरचना के फलस्वरूप उत्पन्न होती हो । जीवन की प्रक्रिया अगणित भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाओं
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