Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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स्थितप्रज्ञ और वीतराग : एक समीक्षात्मक विश्लेषण | ३३१
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नास्ति बुद्धिरयुक्तस्थ, न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥२२ अर्जुन ! इन्द्रियों को जीत पाना वास्तव में बड़ा कठिन है। इन्द्रियाँ प्रमथनशील हैं---इतनी वेगशील हैं कि मानव के विचारों को मथ डालती हैं, विचलित कर देती हैं । साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या, वे ज्ञानी का भी मन हर लेती हैं।
मन स्वच्छन्दतापूर्वक विचरने वाली इन्द्रियों का अनुगमन करने लगे तो और अधिक संकट है। जिस प्रकार वायु जल में बहती (तैरती) नौका को डुबा देता है, उसी प्रकार वह इन्द्रियानुगत मन प्रज्ञा का हरण कर लेता है।
ऐसी स्थिति में जो, गीताकार के अनुसार अयुक्त-योगविरहित, अजागरूक या अनवस्थित दशा है, बुद्धि और भावना का अपगम हो जाता है । तब फिर कहाँ शान्ति और कहाँ सुख ?
इन्द्रियाँ और मन को वशंगत करने के लिए आत्म-शक्ति को जगाना होता है। आत्मा अपरिसीम, विराट शक्ति का संस्थान है पर जब तक शक्ति सुषप्त रहती है, तब तक उससे कुछ निष्पन्न नहीं होता । मुण्डकोपनिषद् का ऋषि बड़े प्रेरक शब्दों में कहता है
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो, न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात् ।
एतैरूपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।। आत्मा को-आत्मा के शुद्ध एवं निर्मल भाव को बलहीन पुरुष नहीं पा सकता, प्रमादी नहीं पा सकता, अयथावत् तप करने वाला भी नहीं पा सकता। जो ज्ञानी यथावत् रूप में ज्ञानपूर्वक तप करता है, उसकी आत्मा ब्रह्मसारूप्य पा लेती है।
शक्ति-जागरण के सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द ने लन्दन में अपने एक भाषण में कहा था
"अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत् में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो उसका विनाश कर सके । तब तुम मुक्त हो जाओगे। तब तुम अपनी प्रकृत आत्मा को जान लोगे ।......" ............ 'तुम आत्मा हो, शुद्ध स्वरूप, अनन्त और पूर्ण हो । जगत् की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है । हे सखे ! तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं है। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है।
उत्तराध्ययन सूत्र का प्रसंग है, जहाँ साधक का आत्म-बल जगाते हुए प्रमाद से ऊपर उठने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है
अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया।
पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम मा पमायए ।। जैसे निर्बल भारवाहक विषम-ऊबड़-खाबड़ मार्ग में पड़कर फिर पछताता है, तुम्हारे साथ कहीं वैसा न हो। सबल भारवाहक के लिए वैसा नहीं होता। क्योंकि अपने बल या शक्ति से सारी विषमताओं को वह पार कर सकता है । पर, दुर्बल वैसा नहीं कर सकता । दुर्बलता-आत्म-दौर्बल्य निश्चय ही एक अभिशाप है। उसके कारण मानव अनेकानेक विषमताओं में ग्रस्त होता जाता है, जीवन का प्रकाश धूमिल हो जाता है । इसीलिए सूत्रकार ने इस गाथा के अन्तिम पद में कहा है कि साधक ! तू क्षणभर भी प्रमाद न कर ।
साधक में आत्म-बल जागे, अपने अन्तरतम में सन्निहित शक्ति-पुञ्ज से वह अनुप्राणित हो, इस अभिप्रेत से जैन आगमों में अनेक स्थानों पर बड़ा महत्त्वपूर्ण उद्बोधन है। उत्तराध्ययन सूत्र में साधक को सम्बोधित कर कहा गया है
"जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।।
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