Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्रमणाचार : एक परिशीलन | ३६१
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विनाश । तीनों में दुःख है, श्रम है, किन्तु दूसरा सहज है और उसकी प्राप्ति भी सरल एवं स्वाभाविक है । आत्म-विज्ञान का उद्देश्य भी विश्व की सुख-शान्ति है किन्तु विश्व-शान्ति आत्म-शान्ति के बिना असम्भव है । अतः धर्मगुरु आत्म-शान्ति के प्रमुख साधन से ही विश्व-शान्ति का अमृत झरना प्रवाहित करता है।
विश्व के प्रत्येक धर्मगुरु का जीवन आचार पर अवलम्बित है किन्तु आधुनिक विश्व में सर्वोत्कृष्ट स्वावलम्बन एवं स्वन्त्रता की कसौटी पर परीक्षण करने पर जैन श्रमण का आचार सर्वोच्च माना जाता है। जैनश्रमण की आचार पद्धति इतनी महान् है कि जन-जन ही नहीं विश्व-विजेता चक्रवर्ती सम्राट् भी उसके समादर में सहज नत हो जाता है । श्रमणाचार की परिभाषा से उसका वास्तविक मूल्यांकन निर्धारित होता है ।
'श्रमण' और 'आचार' इन दोनों शब्दों के समन्वय से श्रमणाचार की निष्पत्ति हुई है । संस्कृत भाषा के अनुसार 'आ' उपसर्गपूर्वक 'चर' धातु से 'आचार' शब्द बनता है उसका तात्पर्य है 'आ-समन्तात् चर्यत इति आचार : "जीवन की प्रत्येक क्रिया में जो ओतप्रोत हो वह आचार है। उसमें क्या खाना, कैसे खाना ऐसे ही चलना, बोलना, सोना, बैठना, चिन्तन करना इत्यादि जीवन की समस्त आन्तरिक एवं बाह्य क्रियाओं का समावेश हो जाता है । आचार से पूर्व इसमें 'श्रमण' शब्द संयुक्त है। श्रमण शब्द की अनेक शास्त्रीय व्याख्याएँ हैं। 'श्रम' शब्द अनेक तात्पर्यों से विभूषित हैं जैसे श्रम, सम, शमन, सुमन, आदि-आदि उसमें एक अर्थ है "श्राम्यतीति श्रमणः" अर्थात् जो मोक्ष के लिए श्रम पुरुषार्थ करता है वह श्रमण है। द्वितीय तात्पर्य है "समता से श्रमण" होता है। "जो शत्रु और मित्र को समान भाव से देखता है वह श्रमण है। जो विश्व के सभी भूत अर्थात् जीवात्माओं को अपनी आत्मा के समान समझकर आत्मवत व्यवहार करता है वह श्रमण है। यही बात वैदिक दर्शन में भी है। उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्याय में श्रमण की बहुत सुन्दर व्याख्या की गई, वह है-"जो लाभ एवं हानि में, सुख व दुःख में, जीवन तथा मृत्यु में निन्दा व प्रशंसा में, मान तथा अपमान में समभाव रखता है वह श्रमण है । "जो इस लोक में अनिश्रित है, परलोक में अनिश्रित है अर्थात् किसी भी आशा तृष्णा के प्रतिबन्ध से मुक्त है तथा जो चन्दन के वृक्ष समान काटे जाने पर भी सौरभ प्रदान करने के समान अपना अहित करने वाले पर भी समभाव की सुधा वर्षाता है तथा भोजन में भिक्षा देने और नहीं देने वाले पर भी प्रसन्न रहता है वह श्रमण है ।"२ यह है 'श्रमणाचार' शब्द की एक शास्त्रीय व्याख्या । अब उसके उद्देश्य एवं बाह्य अन्तर के आचार पर विविध दृष्टियों से विवेचन किया जावेगा। श्रमणाचार का शास्त्रीय स्वरूप
श्रमणत्व का जन्म---मानवमात्र कोई जन्मजात श्रमण नहीं होता किन्तु श्रमणत्व एक साधना विशेष है जिसे समझपूर्वक स्वीकृत किया जाता है। अथवा श्रमण एक विशिष्ट पद विशेष है जिसे पुरुषार्थ से प्राप्त किया जाता है। जैसे एक मानव शिशु-विद्यालय में प्रविष्ट होकर अपने विशेष श्रम से बी० ए०, एम०ए०, डाक्टर, इन्जिनियर, वैज्ञानिक इत्यादि एक विषय में निष्णात होकर बाहर आता है, इसी प्रकार श्रमण भी आत्मसाधना के केन्द्र में प्रवेश करके सर्वोच्च आत्म-विकास की स्थिति को प्राप्त करता है। इसीलिए श्रमण का जन्म माता के गर्भ से नहीं किन्तु गुरु के समीप होता है जैसे श्रमण भगवान् महावीर प्रभु के समीप गौतम स्वामी सुधर्मा आदि चौदह सहस्र साधकों ने श्रमण-दीक्षा स्वीकार की थी। उन साधकों के लिए शास्त्रों में यत्र-तत्र-सर्वत्र 'अणगारे जाए' शब्द प्रयुक्त है अर्थात् श्रमण अनगार का जन्म हुआ। श्रमण का उद्देश्य
प्रत्येक साधना का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है वह साधना चाहे लौकिक हो या लोकोत्तर । ऐसे विश्व में चार पुरुषार्थ विशिष्ट माने जाते हैं, वे हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें दो लौकिक हैं, दो लोकोत्तर । प्रथम में अर्थ साधन है तो काम साध्य । द्वितीय लोकोत्तर पुरुषार्थ में धर्म साधन है और मोक्ष साध्य । श्रमण एक साधक है तो उसके भी साधन व साध्य अवश्य है। क्योंकि निरुद्देश्य कोई प्रवृत्ति नहीं होती। श्रमण का साध्य है मोक्ष । अर्थात् आत्मा को संसार के दुःखों से मुक्त करने के लिए ही धमणत्व की साधना की जाती है । महात्मा बुद्ध भी संसार को दुःखमय मानकर अपने अबोध शिशु राहुल, प्रिय पत्नी यशोधरा एवं विशाल राज्य को त्याग कर निकल
MAHAL
YOUNM
LULU