Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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स्थितप्रज्ञ और वीतराग : एक समीक्षात्मक विश्लेषण | ३३३
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जब साधक कामनाओं को पी जाता है, अपने में लीन कर लेता है तो पर्वत की तरह स्थिर-अडिग हो जाता है, समुद्र की तरह गम्भीर और विराट् हो जाता है । गीता में उसका बड़ा सुन्दर शब्द चित्र है
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठ, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा य प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥२६ । नदियाँ बहती-बहती समुद्र में पहुँचती जाती हैं, उसकी विराट्ता में विलीन होती जाती हैं । फिर उनका कोई अस्तित्व रह नहीं जाता उसी तरह जिस साधक की कामनाओं की सरिताएं विलीन हो जाती हैं उसके लिए शान्ति, का निर्मल निर्झर प्रस्फुटित हो जाता है।
ऐसी दशा, जहाँ जीवन में शान्त भाव परिव्याप्त होता है, एक निराली ही स्थिति होती है । अध्यात्मयोगी श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा है
देह छतां जेहनी दशा, बरते देहातीत ।
ते ज्ञानीनां चरणमां, हो वंदन अगणीत ।। श्रीमद् राजचन्द्र के कथन का आशय यह है कि देह विद्यमान रहता है, रहेगा ही-जब तक संयोग है । ज्ञानी देह में देहभाव मानता है, आत्म-भाव नहीं। इसलिए उसे देहातीत कहा जाता है। वैसा ज्ञानी सबके लिए वंद्य और नमस्य है । पहले अनेक प्रसंगों में यह चचित हुआ है कि पदार्थ का अस्तित्व एक बात है और राग भाव से ग्रहण, दूसरी बात । राग भाव से जब पदार्थ गृहीत होता है, तब गृहीता पर पदार्थ-भाव हावी हो जाता है, उसका अपना स्व-भाव विस्मृत या विसुप्त हो जाता है। थोड़े से शब्दों में श्रीमद् राजचन्द्र ने बड़े मर्म की बात कही है। गीताकार ने ऐसी दशा को ब्राह्मी दशा के नाम से व्याख्यात किया है । वहाँ लिखा है
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ ! नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥"३० स्थितप्रज्ञ दर्शन का यह अन्तिम श्लोक है । प्रज्ञा की स्थिरता के सम्बन्ध में सब कुछ कह चुकने के अनन्तर योगिराज कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन ! मैंने प्रज्ञा के स्थिरीकरण, अनासक्तीकरण, स्वायत्तीकरण के सम्बन्ध में जो व्याख्यात किया है, उसकी परिणति ब्राह्मी स्थिति में होती है। ब्रह्म शब्द परमात्मा या विराट्ता का वाचक है । अनासक्तता आने से वैयक्तिक संकीर्णता टिक नहीं पाती वहाँ व्यष्टि और समष्टि में तादात्म्य हो जाता है। वेदान्त की भाषा में जीवात्मा मायिक आवरणों को ज्ञान द्वारा अपगत कर ब्रह्म की विराट सत्ता में इस प्रकार एकीभूत हो जाता है कि फिर भिन्नता या भेद जैसी स्थिति रहती ही नहीं । जैन-दर्शन इस राग-वजित, आसक्ति शून्य दशा का आत्मा के परम शुद्ध स्वरूप के अनावृत या उद्घाटित होने के रूप में आख्यान करता है। दूसरे शब्दों में इसे यों समझा जा सकता है कि आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्रात्मक विराट्ता, जो कर्मों के आवरण से ढकी रहती है, राग का अपगमन हो जाने से अनावृत हो जाती है। वहाँ न विकार रहता है और न कोई दोष । ऐहिक सूख-दुःखात्मकता वैकारिक है। इस दशा में पहुँची हुई आत्मा वैकारिकता से सर्वथा ऊँची उठ जाती है । यह स्थिति गीता की ब्राह्मी स्थिति से तुलनीय है। गीताकार कहते हैं कि ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाय तो फिर साधक विमोह में नहीं जाता । क्योंकि विमूढ़ता के हेतुभूत संस्कार वहाँ विद्यमान नहीं रहते।
स्वरूपावबोध के बाद लौकिकता का परिवेश स्वयं उच्छिन्न हो जाता है। केवल अपने शुद्ध स्वरूप की अनुभूति रहती है । आचार्य शंकर के शब्दों में वह इस प्रकार है
न मृत्युन शंका न मे जातिभेदः, पिता नैव मे नैव माता न जन्म । न बन्धुर्न मित्रं गुरु व शिष्य
श्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।। जब अपने आपका बोध हो जाता है, तब जन्म व मृत्यु जिनका सम्बन्ध केवल देह से है, माता-पिता, भाई,
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