Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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डा० अमरनाथ पाण्डेय एम. ए., डी. फिल [अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, काशी विद्यापीठ, वाराणसी]
अनेकान्त एक बौद्धिक व्यायाम नहीं है, वह समता का दर्शन है। समता के बीज से ही अहिंसा का कल्पवृक्ष अंकुरित हुआ है । अतः अनेकान्तदर्शन एक जीवंत अहिंसासमता का दर्शन है। विद्वान दार्शनिक डा० पांडेय की सार पूर्ण शब्दावली में पढ़िए।
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अनेकान्तदर्शन-अहिंसा की परमोपलब्धि
ANALANA
जैनदर्शन में आचार का विशेष महत्त्व रहा है, इसीलिए जीवन में अहिंसा के पालन का उपदेश स्थल-स्थल पर विन्यस्त किया गया है । जैन मुनियों के जीवन में अहिंसा व्याप्त रही है। उन्होंने अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या की है
और उसके सभी पक्षों का सम्यक उन्मीलन किया है। सारी परिस्थितियों के समाधान के लिए अहिंसा के मार्ग का निर्देश किया गया है।
मनुष्य जो काम शरीर से नहीं करता, उसके सम्बन्ध में भी चिन्तन करता रहता है। मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उठते हैं, जिनसे हम आंदोलित होते रहते हैं। हमारा चित्त सदा अशांत रहता है । ऐसा क्यों है ? हमारे जीवन में अनेक सम्बन्ध हैं। उनका प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ता है। प्रभाव के कारण चित्त में हलचल होती है। इससे चित्त का शांत, गम्भीर स्वमाव विकृत होता है। ऐसी स्थिति में चित्त अपनी निर्मल-शांत प्रकृति में समाहित नहीं रहता । यही कारण है कि हम परम शांति का दर्शन नहीं कर पाते ।
साधक प्रयत्न करता है कि उसका जीवन ऐसा हो जाय कि उसके मानस का निर्मल स्वरूप विकृत न हो। उसका मन अगाध शांत सागर की भांति अवस्थित हो । इस स्थिति की प्राप्ति के लिए निरन्तर साधना करनी पड़ती है। अहिंसा का सम्बल लेकर चलने वाला साधक अपने लक्ष्य तक पहुंचता है। अहिंसा का स्वरूप बड़ा ही सूक्ष्म है। इसके सभी परिवेशों को समझना पड़ता है। कोई किसी जीव को पैर से दबा देता है, कोई किसी पशु को पीट देता है, कोई किसी के शरीर पर प्रहार करता है, कोई किसी की हत्या कर देता है-इस प्रकार की अनेक हिंसायें होती रहती हैं। इनसे हिंसक का चित्त आंदोलित होता है, चित्त का शांत-निर्मल स्वभाव विकृत हो जाता है । जितनी बार इस प्रकार की घटनायें होती हैं, उतनी बार चित्त पर उसी प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं । इससे हिंसक के जीवन में भय, हलचल, उद्वेग आदि व्याप्त हो जाते हैं। मुनियों ने इन सारे प्रसङ्गों का आकलन किया और घोषणा की कि अहिंसा जीवन का लक्ष्य है। अहिंसा के पथ पर चलने वाला साधक पहले बड़ी कठिनाई का अनुभव करता है । वह धीरे-धीरे उन सभी कर्मों से विरत होने का प्रयत्न करता है, जिनसे किसी भी जीव की किसी प्रकार की क्षति होती है। व्यक्ति में उस समय क्रोध उत्पन्न होता है, जब कोई उसे धक्का दे देता है या उसके लिए अपशब्द का प्रयोग करता है। वह धक्का देने वाले व्यक्ति को धक्का देना चाहता है या अपशब्द का प्रयोग करने वाले व्यक्ति के लिए अपशब्द का प्रयोग करना चाहता है। यदि व्यक्ति इन कार्यों से विरत रहे, तो अहिंसा का प्रारम्भ हो जाता है । उद्वेजक प्रसङ्गों से चित्त में किसी प्रकार का विकार नहीं उत्पन्न होना चाहिए । जब कर्म, वचन और मन इन तीनों में अहिंसा की प्रतिष्ठा होती है, तभी अहिंसा का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत होता है । कर्म की अहिंसा से वचन की अहिंसा सूक्ष्म है और वचन की अहिंसा से मन की अहिंसा सूक्ष्म है। मनुष्य प्रायः ऐसे वचन का प्रयोग करता रहता है, जिससे किसी की हानि हो जाती है, किसी का मन खिन्न हो जाता है । यह भी हिंसा है । इसी प्रकार मनुष्य जब मन में सोचता है कि किसी की हानि हो जाय, तब मानसिक हिंसा होती है । आचार्यों ने हिंसा के इन पक्षों पर विचार किया और बार-बार चेतावनी दी है कि हिंसा न कर्म में आये, न वचन में और न मन में ही । जीवन में कर्म की हिंसा के प्रसङ्ग कम होते हैं, वचन और मन की हिंसा के प्रसङ्ग अनेक । मनुष्य प्रतिदिन वाचनिक और मानसिक हिंसा करता है । वह किसी को डांटता है, किसी के लिए अपशब्द का प्रयोग
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