Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३०२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
(११) लोकाग्र प्रतिवाहिनी - लोक के अग्र भाग ने जिस क्षेत्र (पृथ्वी) का वहन किया है।
(१२) सर्व प्राण- भूत- जीव-सत्व सुखावहा— चतुर्गति के जीव एक भव या अनेक भव करके इस मुक्तिक्षेत्र को प्राप्त होते हैं और वे शाश्वत सुख को प्राप्त होते हैं । २२
मुक्ति के प्रकार
मुक्ति दो प्रकार की है – एक द्रव्यमुक्ति और दूसरी मावमुक्ति ।
द्रव्यमुक्ति अनेक प्रकार की है— ऋण चुका देने पर जो ऋण से मुक्ति मिलती है, वह ऋणमुक्ति द्रव्य
मुक्ति है।
द्रव्यमुक्ति है ।
हेतु है।
सकती है ।
कारागार से मुक्ति मिलने पर जो हथकड़ी, बेड़ी आदि बन्धनों से मुक्ति मिलती है, वह बन्धनमुक्ति भी
इसी प्रकार अभियोगमुक्ति, देहमुक्ति आदि अनेक प्रकार की द्रव्यमुक्तियाँ हैं ।
औदयिक भावों से मुक्त होने पर आत्मा की जो कर्मबन्धनों से मुक्ति होती है । अथवा औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक भावों के आने पर जो कर्मबन्धनों से मुक्ति होती है वह "भावमुक्ति" कही गई है। इस प्रकार भावों द्वारा प्राप्त "भावमुक्ति" ही वास्तविक मुक्ति है । ये भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से किए गए हैं । संग्रहनय की अपेक्षा से तो मुक्ति एक ही प्रकार की है। 23
मुक्ति के मूल कारण
(१) काल, (२) स्वभाव, (३) नियति, (४) पूर्वकृत कर्मक्षय और (५) पौरुष ये मुक्ति के प्रमुख पाँच
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इन पाँचों के समुदाय से आत्मा मुक्त होती है। इनमें से एक का अभाव होने पर भी आत्मा मुक्त नहीं हो
(१) काल - आत्मा के कर्मबंधन से मुक्त होने में काल की अपेक्षा है । कुछ मुक्तात्माओं का साधना काल अल्प होता है और कुछ का साधना काल अधिक । अर्थात् कुछ आत्माएँ एक भव की साधना से और कुछ आत्माएँ अनेक भव की साधना के बाद मुक्त होती हैं। इसलिए काल मुक्ति का प्रमुख हेतु है ।
(२) स्वभाव - मुक्ति का प्रमुख हेतु केवल काल ही नहीं है । आत्मा के कर्मबन्धन से मुक्त होने में स्वभाव की भी अपेक्षा है । केवल काल ही यदि मुक्ति का हेतु होता तो अमव्य भी मुक्त हो जाता, किन्तु मुक्त होने का स्वभाव भव्य का ही है, अभव्य का नहीं। इसलिए स्वभाव भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है ।
(३) नियति-काल और स्वभाव - केवल ये दो ही मुक्ति के दो प्रमुख हेतु नहीं हैं। आत्मा के कर्मबन्धन से मुक्त होने में नियति की भी अपेक्षा है । यदि काल और स्वभाव – ये दो ही मुक्ति के प्रमुख हेतु होते तो समी भव्य आत्माएँ मुक्त हो जातीं, किन्तु जिन भव्य आत्माओं के मुक्त होने की नियति होती है वे ही मुक्त होती हैं। इसलिए नियति भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है ।
(४) पूर्वकृत कर्मक्षय-काल, स्वभाव और नियति केवल ये तीन ही मुक्ति के प्रमुख हेतु नहीं है आत्मा के कर्मबन्धन से मुक्त होने में पूर्वकृत कर्मक्षय भी अपेक्षित है । काल, स्वभाव और नियति ही यदि मुक्ति के प्रमुख हेतु होते तो राजा श्रेणिक मी मुक्त हो जाते किन्तु उनके पूर्वकृत कर्म जब तक क्षय नहीं हुए तब तक वे मुक्त कैसे होते ? इसलिए पूर्वकृत कर्मक्षय भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है ।
(५) पौरुष - पूर्वकृत कर्मों का क्षय पौरुष के बिना नहीं होता, इसलिए पूर्वोक्त चार हेतुओं के साथ पौरुष भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है ।
यद्यपि मरुदेवी माता के मुक्त होने में बाह्य पुरुषार्थ परिलक्षित नहीं होता है किन्तु क्षपक श्रेणी और शुक्लध्यान का अंतरंग पुरुषार्थ करके ही वह मुक्त हुई थीं ।
मुक्ति के अन्य मूल कारण
१. सत्व - गमनागमन शक्ति सम्पन्नता, ३. मनुष्यत्व
२. पञ्चेन्द्रिय सम्पन्न, ४. आर्यदेश
एह ॐ
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