Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२७६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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को समेट कर संकलन करने वाला जो है, वह है मन । उसके लिए हरा रंग, पत्तियाँ, पुष्प, फल और छाल-ये अलगअलग नहीं हैं किन्तु एक ही पेड़ के विभिन्न रूप हैं। इन्द्रियों के जगत् में वे अलग-अलग होते हैं और मन के जगत् में वे सब अभिन्न होकर पेड़ बन जाते हैं। मन सोचता है, मनन करता है, कल्पना करता है और स्मृति करता है। जीव के पास बुद्धि है। वह मन के द्वारा प्राप्त सामग्री का विवेक करती है, निर्णय देती है और उसमें कुछ अद्भुत क्षमताएँ हैं। वह इन्द्रिय और मन से सामग्री प्राप्त किये बिना ही कुछ विशिष्ट बातें जान लेती है । ये (इन्द्रिय, मन और बुद्धि) सब जीव की चेतना के भौतिक संस्करण हैं । इसलिए ये पुद्गलों के माध्यम से एक को जानते हैं । ये ज्ञेय का साक्षात्कार नहीं कर सकते । शुद्ध चेतना ज़य का साक्षात्कार करती है । वह किसी माध्यम से नहीं जानती। इसीलिए हम उसे प्रत्यक्ष ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान का सम्पूर्ण क्षेत्र जीव के अधिकार में है।
गौतम ने पूछा-भंते ! पुद्गल का क्या कार्य है ?
भगवान् ने कहा-आदमी श्वास लेता है, सोचता है, बोलता है, खाता है-यह सब पुद्गल के आधार पर हो रहा है। श्वास की वर्गणा (पुद्गल समूह) है, इसलिए वह श्वास लेता है। मन की वर्गणा है इसलिए वह सोचता है। भाषा की वर्गणा है, इसलिए वह बोलता है। आहार की वर्गणा है, इसलिए वह खाता है। यदि ये वर्गणाएँ नहीं होती तो न कोई श्वास लेता, न कोई सोचता, न कोई बोलता और न कोई खाता। जितने दृश्य तत्त्व हैं, वे सब पुद्गल की वर्गणाएं हैं। पुद्गलास्तिकाय का स्वरूप एक है, फिर भी कार्य के आधार पर उसकी अनेक वर्गणाएं हैं। उसे एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। एक ग्वाला भेड़ों को चराता था। वे अनेक लोगों की थीं। उसे गिनती करने में कठिनाई होती थी। उसने एक रास्ता निकाला। एक-एक मालिक की भेड़ों का एक-एक वर्ग बना दिया और उन्हें एक-एक रंग से रंग दिया। उसे सुविधा हो गई। यह वर्गणाओं का विभाजन भी कार्य-बोध की सुविधा के आधार पर किया गया है । जीव की जितनी भी प्रवृत्ति होती है, वह पुद्गल की सहायता से होती है । यदि वह नहीं होता तो कोई प्रवृत्ति नहीं होती। सब कुछ निष्क्रिय और निर्वीर्य होता ।
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विणएण णरो, गंधेण चंदणं सोमयाइ रयणियरो। महुररसेण अमयं, जणपियत्तं लहइ भूवणे॥
-धर्मरत्नप्रकरण, १ अधिकार जैसे सुगन्ध के कारण चंदन, सौम्यता के कारण चन्द्रमा और मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय हैं, ऐसे ही विनय के कारण मनुष्य लोगों में प्रिय बन जाता है।
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