Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मोक्ष और मोक्षमार्ग | २६३
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है, एवं अनात्म है, एकमात्र निर्वाण ही साध्य है ।२० निर्वाण बौद्धदर्शन का महत्त्वपूर्ण शब्द है। प्रो० मूर्ति ने बौद्ध दर्शन के इतिहास को निर्वाण का इतिहास कहा है ।२१ प्रोफेसर यदुनाथ सिन्हा निर्वाण को बौद्ध शीलाचार का मूलाधार मानते हैं । २२
अभिधम्म महाविभाषा शास्त्र में निर्वाण शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां बताई हैं। जैसे वाण का अर्थ पुनर्जन्म का रास्ता और निर् का अर्थ छोड़ना है अत: निर्वाण का अर्थ हुआ स्थायी रूप से पुनर्जन्म के सभी रास्तों को छोड़ देना।
वाण का दूसरा अर्थ दुर्गन्ध और निर् का अर्थ 'नहीं' है अतः निर्वाण एक ऐसी स्थिति है जो दुःख देने वाले कमों की दुर्गन्ध से पूर्णतया मुक्त है।
वाण का तीसरा अर्थ घना जंगल है और निर् का अर्थ है स्थायी रूप से छुटकारा पाना ।
वाण का चतुर्थ अर्थ बुनना है और निर् का अर्थ नहीं है अतः निर्वाण ऐसी स्थिति है जो सभी प्रकार के दुःख देने वाले कर्मों रूपी धागों से जो जन्म-मरण का धागा बुनते हैं उनसे पूर्ण मुक्ति है ।२७
पाली टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित पाली-अंग्रेजी शब्द कोष में 'निव्वान' शब्द का अर्थ बुझ जाना किया है। अमर कोष में भी यही अर्थ प्राप्त होता है।
रीज डेविड्स थॉमस, आनन्द कुमार-स्वामी, पी० लक्ष्मीनरसु, दाहल मेन, डा० राधाकृष्णन्, प्रो० जे० एन० सिन्हा, डा० सी० डी० शर्मा प्रभृति अनेक विज्ञों का यह पूर्ण निश्चित मत है कि निर्वाण व्यक्तित्व का उच्छेद नहीं है अपितु यह नैतिक पूर्णत्व की ऐसी स्थिति है जो आनन्द से परिपूर्ण है।
डा. राधाकृष्णन लिखते हैं-निर्वाण न तो शून्य रूप है और न ही ऐसा जीवन है जिसका विचार मन में आ सके, किन्तु यह अनन्त यथार्थ सत्ता के साथ ऐक्यभाव स्थापित कर लेने का नाम है, जिसे बुद्ध प्रत्यक्षरूप से स्वीकार नहीं करते हैं।२४
बुद्ध की दृष्टि से 'निव्वान' उच्छेद या पूर्ण क्षय है परन्तु यह पूर्ण क्षय आत्मा का नहीं है । यह क्षय लालसा, तृष्णा, जिजीविषा एवं उनकी तीनों जड़ें राग, जीवन धारण करने की इच्छा और अज्ञान का है ।२५
प्रो. मेक्समूलर लिखते हैं कि यदि हम धम्मपद के प्रत्येक श्लोक को देखें जहाँ पर निर्वाण शब्द आता है तो हम पायेंगे कि एक भी स्थान ऐसा नहीं हैं जहाँ पर उसका अर्थ उच्छेद होता हो । सभी स्थान नहीं तो बहुत अधिक स्थान ऐसे हैं जहाँ पर हम निर्वाण शब्द का उच्छेद अर्थ ग्रहण करते हैं तो वे पूर्णत: अस्पष्ट हो जाते हैं ।२६
राजा मिलिन्द की जिज्ञासा पर नागसेन ने विविध उपमायें देकर निर्वाण की समृद्धि का प्रतिपादन किया है ।२७ जिससे यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध का निर्वाण न्याय-वैशेषिकों के मोक्ष के समान केवल एक निषेधात्मक स्थिति नहीं है।
तथागत बुद्ध ने अनेक अवसरों पर निर्वाण को अव्याकृत कहा है। विचार और वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । प्रसेनजित के प्रश्नों का उत्तर देती हुई खेमा भिक्षुणी ने कहा-जैसे गंगा नदी के किनारे पड़े हुए रेत के कणों को गिनना कथमपि सम्भव नहीं है, या सागर के पानी को नापना सम्भव नहीं है उसी प्रकार निर्वाण की अगाधता को नापा नहीं जा सकता ।२६
बुद्ध के पश्चात् उनके अनुयायी दो भागों में बंट गये, जिन्हें हीनयान और महायान कहा जाता है । अन्य सिद्धान्तों के साथ उनके शिष्यों में इस सम्बन्ध में मतभेद हुआ कि हमारा लक्ष्य हमारा ही निर्वाण है या सभी जीवों का निर्वाण है ? बुद्ध के कुछ शिष्यों ने कहा-हमारा लक्ष्य केवल हमारा ही निर्वाण है । दूसरे शिष्यों ने उनका प्रतिवाद करते हुए कहा-हमारा लक्ष्य जीवन मात्र का निर्वाण है। प्रथम को द्वितीय ने स्वार्थी कहा और उनका तिरस्कार करने के लिए उनको हीनयान कहा और अपने आपको महायानी कहा । स्वयं हीनयानी इस बात को स्वीकार नहीं करते, वे अपने आपको थेरवादी (स्थविरवादी) कहते हैं।
संक्षेप में सार यह है कि बुद्ध ने स्वयं निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया, जिसके फलस्वरूप कतिपय विद्वानों ने निर्वाण का शून्यता के रूप में वर्णन किया है तो कतिपय विद्वानों ने निर्वाण को प्रत्यक्ष आनन्ददायक बताया है।२६
राज
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