Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मेवाड़ का प्राकृत, अपभ्रश एवं संस्कृत साहित्य | २०५
इन समस्त रचनाओं का विषय प्रतिपादन यहाँ अपेक्षित नहीं है। इनसे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि हरिभद्रसूरि ने अपने समय में संस्कृत को धर्म और दर्शन के क्षेत्र में एक सशक्त भाषा के रूप में स्वीकार किया था। . जिनसेन
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एलाचार्य एवं वीरसेन के समय में चित्तौड़ जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया था। अतः वीरसेन के प्रमुख शिष्य जिनसेन ने भी चित्तौड़ में काव्य-रचना की प्रेरणा ग्रहण की है। उनका सम्बन्ध चित्तौड़, बंकापुर एवं वटग्राम से रहा है। जिनसेन की प्रतिभा और पाण्डित्य अद्वितीय था। वे जितने सिद्धान्तशास्त्रों के ज्ञाता थे उतने ही काव्य-शास्त्र के मर्मज्ञ । उनकी तीन संस्कृत रचनाएँ उपलब्ध हैं-१. पाश्र्वाभ्युदय २. आदिपुराण एवं ३. जयधवलाटीका । पाश्र्वाभ्युदय में जिनसेन ने कालिदास के मेघदूत की समस्यापूर्ति की है। आदिपुराण में ऋषभदेव और भरतचक्रवर्ती की कथा के माध्यम से कवि ने प्राचीन इतिहास, धर्म-दर्शन व संस्कृति आदि अनेक विषयों का प्रतिपादन किया है।४ जयधवलाटीका में जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन के कार्य को पूरा किया है। ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका इन्होंने स्वयं लिखी हैं । यद्यपि जिनसेन के ये ग्रन्थ मेवाड़ में नहीं लिखे गये, किन्तु मेवाड़ भूमि की साहित्यिक परम्परा का पोषण अवश्य इनकी पृष्ठभूमि में है। जिनवल्लभसूरि
राजस्थान की एक महान विभूति के रूप में जिनवल्ल भसूरि को स्मरण किया जाता है । ये संस्कृत, प्राकृत के अधिकारी विद्वान थे। खरतरगच्छ की परम्परा में इन्होंने स्वयं साहित्य लिखा है तथा अपने शिष्यों को भी इतना तैयार किया कि वे अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिख गये हैं। जिनवल्लभसूरि के संस्कृत में निम्न प्रमुख ग्रन्थ उपलब्ध हैं
१. धर्मशिक्षाप्रकरण, २. संघपट्टक, ३. भावारिवारणस्तोत्र, ४. पंचकल्याणस्तोत्र, ५. कल्याणस्तोत्र, ६. सरस्वतीस्तोत्र, ७. सर्वजिनस्तोत्र, ८. पार्श्वजिनस्तोत्र, ६. पार्श्वस्तोत्र, १०. शृगारशतक ११. प्रश्नोत्तरषष्टीशतक, १२. चित्रकूट प्रशस्ति आदि ।
इन ग्रन्थों का विषय धार्मिक है। किन्तु संस्कृत भाषा का चमत्कारिक प्रयोग कवि ने किया है। विभिन्न .. अलंकारों और छन्दों से ये रचनाएँ ओत-प्रोत हैं । यद्यपि उनके आकार छोटे हैं, किन्तु विषय की स्पष्टता है।
इन रचनाओं में 'शृंगारशतक' महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृति है। भरत के नाट्यशास्त्र और कामतन्त्र के दोहन के बाद सम्भवतः इसे लिखा गया है । जैनाचार्यों की यह अकेली शृगार-प्रधान संस्कृत रचना है। इसमें कुल एक सौ इक्कीस श्लोक हैं। इस कृति में नायिका के अंगोपांग तथा हावभाव का अच्छा वर्णन हुआ है । एक पद्य में कवि कहता है कि नायिका की दन्त-ज्योत्सना गगन-मण्डल में फैलती हुई अखिल विश्व को अपनी धवलिमा से आप्लावित कर रही है। ऐसी स्थिति में वह अभिसार के लिए चन्द्रोदय की प्रतीक्षा क्यों करे?
मुग्धे दुग्धादिवाशा रचयति तरला ते कटाक्षच्छटाली, दन्तज्योत्स्नापि विश्वं विशदयति वियन् मण्डलं विस्फुरन्ती । उत्फुल्लद् गंडपाली विपुलपरिलसत् पाणिडमाडम्बरेण,
क्षिप्तेन्दो कान्तमदाभिसर सरभसं किं तवेन्दूदयेन ॥७६॥ जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि की भी कुछ रचनाएँ संस्कृत में मिलती हैं । यथा-वीरस्तुति, सर्वजिन स्तुति, चक्रेश्वरीस्तोत्र, योगिनीस्तोत्र, अजितस्तोत्र आदि । ये सभी रचनाएं भक्ति प्रधान हैं।
१. दृष्टव्य 'समदर्शी हरिभद्ररि'। २. 'आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान् गुरोरनुज्ञात् ३. शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान', पृ० ४०२ ४. शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत', दृष्टव्य । ५. दृष्टव्य-विनयसागर, 'जिनवल्लभसूरि का कृतित्व एवं व्यक्तित्व'
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