Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२६० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
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कल्पना में भी एकरूपता नहीं है । कोई परम्परा जीवात्मा और परमात्मा में भेद मानती है, कोई सर्वथा अभेद मानती है और कोई भेदाभेद मानती है। कोई परम्परा आत्मा को व्यापक मानती है तो कोई अणु मानती है, कोई परम्परा आत्मा को अनेक मानती है तो कोई एक मानती है, पर यह एक सत्य तथ्य है कि वैदिक परम्परा के सभी दार्शनिकों ने किसी न किसी रूप में आत्मा को कूटस्थ नित्य माना है ।
न्याय-वैशेषिक दर्शन
वैशेषिकदर्शन के प्रणेता कणाद और न्यायदर्शन के प्रणेता अक्षपाद ये दोनों आत्मा के सम्बन्ध में एकमत हैं। दोनों ने आत्मा को कूटस्थ नित्य माना है। इनकी दृष्टि में आत्मा एक नहीं अनेक हैं, जितने शरीर हैं उतनी आत्माएँ हैं। यदि एक ही आत्मा होती तो हम विराट विश्व में जो विभिन्नता देखते हैं वह नहीं हो सकती थी ।
न्याय और वैशेषिक दर्शन ने आत्मा को चेतन कहा है। उनके अभिमतानुसार चेतन आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं अपितु आगन्तुक (आकस्मिक) गुण है । जब तक शरीर इन्द्रिय और सत्त्वात्मक मन आदि का सम्बन्ध रहता है तब तक उनके द्वारा उत्पन्न ज्ञान आत्मा में होता है। ऐसे ज्ञान को धारण करने की शक्ति चेतन में है, पर वे ऐसा कोई स्वाभाविक गुण चेतन में नहीं मानते हैं जो शरीर, इन्द्रिय, मन आदि का सम्बन्ध न होने पर भी ज्ञान गुण रूप में या विषय ग्रहण रूप में आत्मा में रहता हो । न्याय-वैशेषिक दर्शन की प्रस्तुत कल्पना अन्य वैदिक दर्शनों के साथ मेल नहीं खाती है । सांख्य दर्शन, योग दर्शन एवं आचार्य शंकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ प्रभृति जितनी भी वेद और उपनिषद् दर्शन की धारायें हैं वे इस बात को स्वीकार नहीं करतीं ।" न्याय-वैशेषिक की दृष्टि से मोक्ष की अवस्था में आत्मा सभी प्रकार के अनुभवों को त्यागकर केवल सत्ता में रहता है। वह उस समय न शुद्ध आनन्द का अनुभव कर सकता है और न शुद्ध चैतन्य का ही । आनन्द और चेतना ये दोनों ही आत्मा के आकस्मिक गुण हैं और मोक्ष अवस्था में आत्मा सभी आकस्मिक गुणों का परित्याग कर देता है, अतः निर्गुण होने से आनन्द और चैतन्य भी मोक्ष की अवस्था में उसके साथ नहीं रहते ।
द्वेष,
न्यायसूत्र पर भाष्य करते हुए वात्स्यायन लिखते हैं कि जब तत्त्वज्ञान के द्वारा मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है तब उसके परिणामस्वरूप सभी दोष भी दूर हो जाते है । दोष नष्ट होने से कर्म करने की प्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है । कर्म प्रवृत्ति समाप्त हो जाने से जन्म-मरण के चक्र रुक जाते हैं और दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है । 11 न्यायवार्तिककार ने उसे सभी दुःखों का आत्यन्तिक अभाव कहा है ।१२ मोक्ष में बुद्धि, सुख, दुःख इच्छा, संकल्प, पुण्य, पाप तथा पूर्व अनुभवों के संस्कार इन नौ गुणों का आत्यन्तिक उच्छेद हो जाता है । 13 उनकी दृष्टि से मोक्ष इसलिए परम पुरुषार्थ है कि उसमें किसी भी प्रकार का दुःख और दुःख के कारण का अस्तित्व नहीं है । वे मोक्ष की साधना इसलिए नहीं करते कि उसके प्राप्त होने पर कोई चैतन्य के सुख जैसा सहज और शाश्वत गुणों का अनुभव होगा ।
न्याय-वैशेषिक दर्शन ने मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहा - यह दुःखों को आत्यन्तिक निवृत्ति है । " दुःखों का ऐसा नाश है कि भविष्य में पुनः उनके होने की सम्भावना नष्ट हो जाती है ।
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स्याद्वाद मञ्जरी में मल्लिषेण ने लिखा है - न्याय-वैशेषिकों के मोक्ष की अपेक्षा तो सांसारिक जीवन अधिक श्र ेयस्कर है, चूंकि सांसारिक जीवन में तो कभी-कभी सुख मिलता भी है, पर न्याय-वैशेषिकों के मोक्ष में तो सुख का पूर्ण अभाव है । १४
कर्मयोगी श्रीकृष्ण का एक भक्त तो न्याय-वैशेषिकों के मोक्ष की अपेक्षा वृन्दावन में सियार बनकर रहना अधिक पसंद करता है । १५ श्री हर्ष भी उपहास करते हुए उनके मोक्ष को पाषाण के समान अचेतन और आनन्दरहित बताते हैं । १६
न्याय वैशेषिक व्यावहारिक अनुभव के आधार पर समाधान करते हैं कि सच्चा साधक पुरुषार्थी, मात्र अनिष्ट के परिहार के लिए ही प्रयत्न करता है। ऐसा अनिष्ट परिहार करना ही उसका सुख है। मोक्ष स्थिति में
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