Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२१० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रकाश पड़ सके । ईसा की ५वीं व छठी शतियां मेवाड़ी कला के इतिहास का अनोखा युग था। उस समय गुप्तकला का पर्याप्त प्रभाव फैल चुका था और स्थानिक सूत्रकार व स्थपति पूर्णरूप से सक्रिय हो चुके थे। मध्यमिका नगरी के पांचवीं शती के शिलालेख में विष्णु-मंदिर का उल्लेख है और छठी शती के लेख में 'मनोरथस्वामि-भवन का । यहां एक गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष भी विद्यमान हैं जो ईंटों का बना था। इस मंदिर के बाहरी भागों पर नाना प्रकार की मिट्टी से बनी मूर्तियां जड़ी थीं जिनमें पशु-पक्षी, कमलाकृति अभिप्राय, पुरुष-स्त्री-शीर्ष आदि महत्त्वपूर्ण हैं । वास्तव में वह युग था मिट्टी की ईंटों के मंदिरों का। ऐसी कुछ गुप्तकालीन मृण्मूर्तियां अजमेर के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं और कुछ फलक पूना के दक्कन कॉलिज के पुरातत्त्व-विभाग में प्रदर्शित हैं। इन फलकों में देवी-देवताओं का अंकन तभी तक अज्ञात है । परन्तु उसी समय नगरी के मंदिर के बाहर सुविशाल मकर-प्रणाली की व्यवस्था की गई थी, ताकि गर्भगृह से पूजा का जल निकल सके। यह कलात्मक प्रस्तर-प्रणाली आज भी तत्रस्थ विद्यमान है । वहां पास में . वृषभ-स्तम्भ-शीर्ष व अन्य प्रस्तर शिलाएँ भी सुरक्षित हैं जो मेवाड़ की गुप्तकला की निधियां हैं । एक विशाल तोरण की व्यवस्था की गयी, जिसके दोनों ओर के आयताकार स्तम्भों पर युगलाकृतियां प्रेममुद्रा में प्रदर्शित हैं । एक स्तम्भ के सबसे नीचे के भाग पर स्थानक शिव 'त्रिशूल' लिए खड़े हैं। सबसे ऊपरी भाग पर 'कीत्तिमुख' अभिप्राय खुदा है । इन स्तम्भों के ऊपर एक शिला पर 'किरातार्जुनीय' संवाद पृथक्-पृथक् खण्डों में उत्कीर्ण है जो भारतीय प्रस्तरकला की अनुपम देन है । समूचे राजस्थान में यह अभिप्राय-विशेष अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुआ। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में भी नगरी से प्राप्त एक शिला खण्ड पर पुरुष-स्त्री की आकृतियां उत्कीर्ण हैं । नगरी की उपर्युक्त शिला में एक छोर पर नरेश शिव का अंकन बहुत महत्त्वपूर्ण है और यह सिद्ध करता है कि उत्तरी भारत के कलाकारों ने नटराज शिव को बहुत पहले से ही अपनी कृतियों में दर्शाया था। नगरी का यह नटराज तो राजस्थानी कला में नरेश का प्राचीनतम अंकन प्रस्तुत करता है । मध्यमिका के शिल्पियों की ये कलाकृतियां भारतीय कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सामग्री मानी जा रही है । नगरी से प्राप्त 'आमलक' खण्ड आजकल स्थानिक पाठशाला के आँगन में पड़ा है, जिससे यह आभास होता है कि नगरी के मंदिर पर शिखर विद्यमान था और उसके ऊपर था खरबूजे की तरह का मोटा आमलक । पूर्व-मध्ययुग में इसकी आकृति तनिक चपटी हो जाती थी। इस दृष्टि से भी मेवाड़ी कला की यह आमलक-शिला भारतीय स्थापत्य के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण करेगी। नगरी के उपर्युक्त तोरण स्तम्भों पर युगलाकृतियां समीपवर्ती 'दशपुर' (मंदसोर) के पास सोंदनी एवं 'खिलचीपुर' की शिल्पकला से साम्य रखती हैं-ये एक ही कला के अन्तर्गत मानी जा जा सकती हैं । सोंदनी से प्राप्त तत्कालीन एक शिलापट्ट आजकल दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है-यहाँ पर विद्याधर स्वप्रेयसी सहित आकाश में उड़ते हुए दिखाई देते हैं ।
ईसा की ५वीं-छठी शतियों में उदयपुर-डूंगरपुर व ईडर (शामलाजी-खेड़ब्रह्मा) क्षेत्र में प्रतिमाएं प्रायः 'पारेवा' (Pareva) पत्थर की बनायी गई, जो नीले-हरे रंग की हैं। इनको क्रमश: कपड़े से रगड़ कर काला रंग दिया जा सकता है और यह पहचानना कठिन हो जाता है कि यह काला संगमरमर है या साधारण पारेवा पत्थर । इस समय मेवाड़ में शिव-शक्ति-पूजा को सविशेष महत्त्व दिया गया। शिव के साथ-साथ मातृकाओं की बहुत प्रतिमाएँ पूजा हेतु बनने लगी। जिनमें ये मातृकाएँ प्रायः शिशु सहित प्रदर्शित की जाती थीं और प्रायः स्वतंत्ररूपेण पूजा हेतु प्रतिष्ठित की जाती थीं। इनमें ऐन्द्री, ब्राह्मी, कौमारी, माहेशी, अम्बिका........ आदि विशेषरूपेण उल्लेखनीय हैं। उदयपुर जिले में कुरावड़ के पास 'जगत' नामक ग्राम में ईसा की छठी शती में एक मातृका मंदिर रहा होगा जो ईंटों का बना थाइसके कुछ अवशेष मुझे खुदाई में मिले थे। यहाँ से प्राप्त तत्कालीन प्रस्तर प्रतिमाएं उदयपुर के प्रताप संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं जिनमें शिशुक्रीड़ा ऐन्द्री व आम्रलुम्बिधारिणी अम्बिका प्रमुख है । ऐन्द्री के एक हाथ में वज्र स्पष्ट है, परन्तु सिर पर मुकुट खटकता है जबकि उनके प्रियदेव 'इन्द्र' के सिर पर किरीट मुकुट का होना परमावश्यक है। उदयपुर जिले में ही 'परसाद' ग्राम के पास 'तनेसर' का एक आधुनिक शिव-मंदिर पहाड़ी की तलहटी में बना हुआ है। यहां एक चबूतरे पर प्राचीन प्रतिमाएं तो मेवाड़ की ५वीं-छठी शती की अनुपम निधियां थीं। सर्वप्रथम गणपति का शीर्षमाग है जहां गणेश के सिर पर अलंकरण का अभाव उनकी प्राचीनता का सूचक है । द्वितीय मूर्ति है 'शक्ति एवं कुक्कुट धर-स्कंद कात्तिकेय' की, जो शामलाजी से प्राप्त व बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित तत्कालीन स्कंद मूर्ति से पूर्ण साम्य रखती है। इस स्कंद मूर्ति के पास, तनेसर ग्राम में ही, अन्य मूर्तियां मातृभाव की द्योतक हैं, कहीं माता ने गोद
MAAYRI
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