Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१८८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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பய
जहाँ उनका स्वर्गवास हुआ, स्वर्गवास से एक दिन पहले तक तेरापंथियों से चर्चा में वे लगे। इससे उनके श्रुताभ्यास का विस्तृत और गहन होना पाया जाता है।
नगीनाजी के कई शिष्याएँ थीं। उनमें चन्दूजी, मगनाजी, गेंदकुंवरजी, कंकूजी, प्यारांजी, फूलकुंवरजी, सुन्दरजी, देवकुंवरजी और सरेकुंवरजी के नाम ज्ञात हुए हैं। चन्दूजी नगीनाजी की बड़ी शिष्या थीं, जिनके इन्द्राजी और वरदूजी नामक दो शिष्याएं रहीं।
___नगीनाजी के शिष्या-परिवार में श्री मगनाजी, प्यारांजी, कंकूजी, देवकुंवरजी, इन्द्राजी (चन्दूजी की शिष्या) अच्छी तपस्विनी सतियाँ थीं।
श्री रंगलालजी तातेड़ ने १६३७ में एक ढाल लिखी, जिसमें इन महासतियों की तपस्या का थोड़ा परिचय मिलता है । किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि किन-किन सतीजी ने कौन-कौन-सा तप किया। उन्होंने समुच्चय लिख दिया। किन्तु तप इनमें से ही किसी ने किया, यह तो निश्चित है।
सं० १६३३ के कपासन चातुर्मास में ७५ दिनों का तप हुआ। २४८ छुटकर खंद हुए। कहते हैं, केसर की वर्षा हुई।
सं० १९३४ में उदयपुर में ३४ और ३५ दिनों की तपश्चर्या हुई।
सादड़ी (मेवाड़), पाँच माह और ग्यारह दिनों का दीर्घ तप हुआ। १७५ मूक पशु बलि से बचाये गये । राजाजी ने कार्तिक मास में जीव-हिंसा के त्याग किये।
सं० १६३६ में खेरोदा में ६६ दिनों का दीर्घतप हुआ । १२५ खंद हुए। सं० १९३७ में आमेट में ६१, ४४ तथा ३३ दिनों के तप हुए । सं० १९३८ में कपासन में ४६ दिनों का तप हुआ । एक सिंघाड़ा आकोला था । वहाँ ४६ दिनों का तप हुआ सं० १६३६ में रतलाम में ३ माह, ८८ दिन तथा ३३ दिन के बड़े तप हुए।
सं० १९४१ सलोदा में ३१ दिन का तप हुआ। इसी तरह उदयपुर चातुर्मास में ३३ दिन की तपस्या हुई। सनवाड़ और ऊँठाला चातुर्मास में भी तपाराधनाएं हुई।
उपर्युक्त सादड़ी चातुर्मास के अवसर पर एक सती ने १३ बोल का अभिग्रह किया। उनमें कुमारिका कन्या, खुलेबाल, काँसी (एक धातु) का कटोरा, सच्चा मोती, कोरा वस्त्र, माल पर बिन्दी आदि बोल थे। श्री गोटीलालजी . मेहता को स्वप्न में यह सब ज्ञात हुआ तब अभिग्रह फला।
महासती इन्द्राजी ने सनवाड़ में अभिग्रह किया कि विवाह के अवसर पर भेष जिसके शरीर पर हो उसके हाथों आहार लेना । कई दिनों के बाद यह अभिग्रह भोपाल सागर वाले कमलचन्दजी बापना के द्वारा फला। उन्होंने जमीकन्द का त्याग किया।
महासती इन्द्राजी अभिग्रह में सर्वाधिक रुचि रखती थीं। उन्होंने पलाना में ४५ दिन की तपस्या के पारणे पर 'काँटे' का अभिग्रह लिया। इसी तरह रायपुर में भतीजा मेवे की खिचड़ी बहराए, ऐसा अभिग्रह लिया। आकोला में मूंछ के बाल का अभिग्रह लिया।
तप ही जिनके जीवन का अंग हो, ऐसी तपस्वी विभूतियां कई विचित्रताएँ लेकर चलती हैं, जिन्हें देख-सुनकर सामान्य व्यक्ति आश्चर्य में डब जाया करता है। महासती श्री धन्नाजी
पाठक श्री नगीनाजी की शिष्याओं में एक नाम कंकूजी का पढ़ चुके हैं। धन्नाजी उन्हीं की शिष्या हैं । यों कंकूजी के चार शिष्याएं थीं-धन्नाजी, सुहागाजी, सुन्दरजी और सोहनाजी।
धन्नाजी प्रथम शिष्या थीं। ये खारोलवंशी भूरजी और भगवतबाई की संतान थीं। इनका जन्मस्थान रायपुर है। सं० १९४८ के लगभग इनका जन्म हुआ था। बहुत छोटी नौ वर्ष की उम्र में महासती श्री कंकूजी के सम्पर्क से इन्हें वैराग्य हुआ । सं० १६५७ वैशाख शुक्ला तृतीया (अखातीज) के दिन कोशीथल में इनकी दीक्षा सम्पन्न हुई।
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