Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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महिमा-मण्डित मेवाड़-भूषण पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज
सौभाग्यशाली भारत सर्वदा अनेक धार्मिक राजनैतिक सामाजिक विभूतियों से समलंकृत होता रहा है । जनचेतना को किसी विशिष्ट दिशा में सम्प्रेषित करना किसी विशिष्ट व्यक्तित्व के द्वारा ही सम्भव हो सकता है । समय के दौर में सब कुछ गुजर जाता है, किन्तु सम्प्रेषण के वे तत्त्व युगों तक अमर रह जाया करते हैं । मेवाड़ के जैन-समाज को दिशा-निर्देशन करने में जिन सत्पुरुषों का योग है, उनमें मेवाड़-भूषण पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। जन्मस्थान
पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज का जन्मस्थान ऊँठाला (वल्लभनगर) है। मेवाड़ में ऊँठाला का धार्मिक एवं राजनैतिक दृष्टि से एक विशेष महत्त्व रहा है । शाक्त सम्प्रदाय के अनुसार शक्ति का एक मातृस्वरूप है, जो प्रचलित भाषा में 'माता' कहलाता है । ऊँठाला उसका पीठस्थल है। प्रतिवर्ष हजारों ही नहीं, लाखों व्यक्ति अपने बच्चों की खुशहाली के लिए 'ऊँठाला माता' की मनौतियाँ मनाते हैं । ऊँठाला माता लोकजीवन में इस तरह घुल-मिल चुकी है कि उसे कोई भी उपदेश जन-जन की श्रद्धा से नहीं हटा सकता । राजस्थान के किसी भी हिस्से में चले जाइये,
आद भवानी ऊँठाला री माता ।
बालूडो रखवारी ए माय ।। ___ यह गीत तो आप सुन ही लेंगे । मुख्यतया शीतला सप्तमी के दिन तो यह गीत वायुमण्डल में लहरा ही जाता है । वर्ष में एक बार यहाँ मेला भी लगता है।
राजनैतिक दृष्टि से ऊँठाला बड़े संघर्ष का स्थान रहा है । मुगल युग में यहाँ कई लड़ाइयाँ लड़ी गई । शक्तावत बल्लूसिंह के बलिदान ने ऊँठाला को अमर कर दिया।
महाराणा अमरसिंह के समय में मेवाड़ के प्रधान राजवंश शक्तावत और चूंडावतों में हरावल (सेना के अग्र भाग में रहना) का विवाद पैदा हुआ था । महाराणा के लिए ये दोनों राजवंश समान थे। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि ऊँठाले के गढ़ में जो पहले प्रवेश करेगा वह हरावल में रहेगा । ऊँठाला उस समय मुगलों के अधिकार में था । शक्तावत बल्लूसिंह और चूंडावत जैतसिंह अपने-अपने दल के अग्रगण्य थे। दोनों दल ऊँठाला पर चढ़े । शक्तावत द्वार तोड़ना चाहते थे। किन्तु किंवाड़ों के तीखी कीलियाँ (शूल) लगी थीं, हाथी टक्कर नहीं मारे, द्वार टूटना सम्भव नहीं था, उधर चूंडावत दिवार पर चढ़कर अन्दर उतरने की कोशिश में लगे थे। दोनों की बाजी दाँव पर थी। दोनों प्रतिस्पर्धा में छाये हुए थे। देरी दोनों को असह्य थी। बल्लूसिंह ने देखा-हाथी डर रहा है । बहादुर बल्लूसिंह कीलों पर चढ़कर टिक गया और महावत को आदेश दिया कि हाथी को हूल दे ! उसने ही नहीं, सैकड़ों साथियों ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता ! किन्तु बल्लूसिंह ने कहा-इज्जत का प्रश्न है, मेरी आज्ञा है, हूल दो ! हाथी हूल दिया गया। हाथी ने कसकर बल्लूसिंह, जो कीलों पर झूल रहा था, को टक्कर मारी, द्वार टूट गया। किन्तु बल्लूसिंह का शरीर छलनी-छलनी हो गया, बड़े-बड़े शूल उसके शरीर में आर-पार हो चुके थे। अपनी बात का दिवाना बल्लूसिंह मर गया, किन्तु बहादुरी की एक मिसाल कायम कर गया।
Manuela
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