Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मेवाड़ राज्य की रक्षा में जैनियों को भूमिका | ११६
महाराणा जयसिंह (वि० सं० १७३७-१७५५) के शासनकाल में वि० सं० १७३७ में चित्तौड़गढ़ के पास शाहजादा आजम एवं मुगल सेनापति दिलावर खाँ की सेना पर रात्रि के समय दयालदास ने भीषण आक्रमण किया, किन्तु मुगल सेना संख्या में अधिक थी, दयालदास बड़ी बहादुरी से लड़ा परन्तु जब उसने देखा कि उसकी विजय सम्भव नहीं है तो मुसलमानों के हाथ पड़ने से बचाने के लिए अपनी पत्नी को अपने ही हाथों तलवार से मौत के घाट उतार दिया और उदयपुर लौट आया, फिर भी उसकी एक लड़की, कुछ राजपूत तथा बहुत-सा सामान मुसलमानों के हाथ लग गया। मेवाड़ की रक्षा के खातिर अपने परिवार को ही शहीद कर देने वाले ऐसे वीर पराक्रमी, महान देशभक्त, स्वामिभक्त तथा कुशल प्रशासक दयालदास की योग्यता, वीरता एवं कूटनीतिज्ञता का विस्तृत वर्णन राजपूत इतिहास के ग्रन्थों के अतिरिक्त फारसी भाषा के समकालीन ग्रन्थों, यथा-'वाकया सरकार रणथम्भौर' एवं 'औरंगजेबनामा' में भी मिलता है । जैनधर्म के उत्थान में भी दयालदास द्वारा सम्पन्न किये गये महान् कार्यों का विशाल वर्णन जैन हस्तलिखित ग्रन्थों व शिलालेखों में उपलब्ध होता है।
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शाह देवकरण
महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (वि० सं० १७६७-६०) के शासनकाल में देवकरण आर्थिक मामलों का मुत्सद्दी था। इसके पूर्वज बीकानेर के रहने वाले डागा जाति के महाजन थे। एक बार महाराणा ने ईडर के परगने में तथा डूंगरपुर व बांसवाड़ा के इलाके के भील व मेवासी लोगों में फैल रही अशान्ति को दबाने के लिए सेना के साथ इसे भेजा । देवकरण ने ईडर पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया तथा वहाँ से पौने पाँच लाख रुपये का खजाना महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के पास भेजा । मेवासी व भील लोगों को भी दबाया । डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, देवलिया एवं रामपुरा के शासकों को भी मेवाड़ की अधीनता मेवाड़ के तत्कालीन प्रधान पंचोली बिहारीदास के साथ रहकर स्वीकार करवाई। वि० सं० १७७५ में मेवाड़ में भयंकर अकाल पड़ा, उस समय भी देवकरण एवं उसके भाइयों ने महाराणा का काफी सहयोग किया ।५
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मेहता अगरचन्द
महाराणा अरिसिंह द्वितीय (वि० सं० १८१७-२६) का शासनकाल मेवाड़ के इतिहास में गृहकलह तथा संघर्ष का काल माना जाता है । ऐसे संकटमय समय में मेहता पृथ्वीराज के सबसे बड़े पुत्र मेहता अगरचन्द ने मेवाड़ राज्य की जो सेवाएँ कीं, वे अद्वितीय हैं। अगरचन्द की दूरदर्शिता, कार्यकुशलता तथा सैनिक गुणों से प्रभावित होकर महाराणा अरिसिंह ने इसे मांडलगढ़ (जिला भीलवाड़ा) जैसे सामरिक महत्त्व के किले का किलेदार एवं उस जिले का हाकिम नियुक्त किया। इसकी योग्यता को देखकर इसे महाराणा ने अपना सलाहकार तथा तत्पश्चात् दीवान के पद पर आरूढ़ किया और बहुत बड़ी जागीर देकर सम्मानित किया। मेवाड़ इस समय मराठों के आक्रमणों से त्रस्त तथा विषम आर्थिक स्थिति से ग्रस्त था । अगरचन्द ने अपनी प्रशासनिक योग्यता व कूटनीति के बाल पर इन विकट परिस्थि
१ (अ) वीर विनोद, द्वितीय भाग, पृ० ६५० ।
(ब) ओझा-राजपूताने का इतिहास, द्वितीय भाग (उदयपुर), पृ० ८६५ । २ (अ) राजसमन्द की पहाड़ी पर इसने आदिनाथ का विशाल जैन मन्दिर बनवाया था । दयालशाह के किले के नाम
से वह आज भी प्रसिद्ध है। (ब) द्रष्टव्य-बड़ोदा के पास छाणी गाँव के जिनालय का शिलालेख ।
(स) जती मान को भी महाराणा राजसिंह से इसने कुछ गाँव दान में दिलवाये । ३ द्रष्टव्य-शोध पत्रिका, वर्ष १६, अंक २, पृ० २६-३५ पर प्रकाशित मेरा लेख-गुणमाल शाह देवकरण री' । ४ (अ) वही, पृ० २६-३५ (ब) वीर विनोद, भाग-२, पृ० १०१० । ५ शोध पत्रिका, वर्ष १६, अंक २, पृ० २६-३५ पर प्रकाशित उपर्युक्त लेख । ६ ओझा-राजपूताने का इतिहास, द्वितीय भाग (उदयपुर), पृ० १३१४ ।
पसा
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