Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१६४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
000000000000
००००००००००००
माता-पिता चल बसे, सांसारिक अनित्यता का एक और चित्र उभर आया। श्री एकलिंगजी के भावुक हृदय में वैराग्य का जो पौधा लहलहा रहा था, उसे एक बहार और मिल गई।
उचित समय देखकर श्री एकलिंगजी ने उदात्त विराग की लहर में लहराते हुये, अपने बड़े भाई श्री मोड़ीलालजी के सामने दीक्षा का प्रस्ताव रखा, जो बड़ी तेजी के साथ ठुकरा दिया गया।
श्री एकलिंगजी तो यह पहले ही जानते थे, उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ।
श्रेष्ठ कार्य में सर्वदा विघ्न आते ही हैं, इससे श्री एकलिंग जी अनजान नहीं थे। किन्तु साथ ही वे यह भी जानते थे कि प्रयत्न करते रहने से कार्य सिद्ध हो जाया करते हैं।
श्री मोड़ीलालजी के निरन्तर विरोध के उपस्थित रहते हुए भी उनका वैराग्य शिथिल नहीं हुआ, दृढ़ ही होता गया।
उन्हीं दिनों पूजनीय श्री वेणीचन्द जी महाराज का वहाँ पदार्पण हो गया। महाराज श्री के वैराग्योत्पादक उपदेशों का जनता पर बड़ा सुन्दर असर होने लगा।
यह अवसर श्री एकलिंगजी के लिए अभीष्ट सिद्धि की सूचना लेकर आया।
मुनिश्री के उपदेशों से श्री मोड़ीलाल जी को एक नया दिशाबोध हुआ। श्री एकलिंगजी के दीक्षा के आग्रह पर जो उनकी प्रतिक्रिया थी, उस पर उन्होंने नये सिरे से विचार प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अनुभव किया कि उनका दुराग्रह केवल मोह के कारण है । मोह भव-भ्रमण का मूल है उन्होंने सोचा कि एकलिंग के आध्यात्मिक अभ्युदय को रोकना मेरा उसके प्रति ही नहीं, समस्त मानव समाज के प्रति अपराध है।
मुझे शीघ्र ही इस अपराध से बचना है। उन्होंने तत्काल ही श्री एकलिंगजी को बुलाकर दीक्षा के लिए सहर्ष अनुमति प्रदान करदी।
वि० सं० १९४८ फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा मंगलवार वह शुभ दिन था, जब मुमुक्षु-रत्न श्री एकलिंगजी का आकोला में सपना साकार हुआ।
दीक्षा के सात दिन बाद ही बड़े भ्राता श्री मोड़ीलाल जी का देहान्त हो गया। यह भी एक सुयोग ही था कि दीक्षा भाई के अवसान के पूर्व ही सम्पन्न हो गई । यदि ऐसा नहीं होकर कुछ दिन की भी देरी होती तो जैन-जगत् के भाग्य में उदित होने वाला यह सितारा उगता या नहीं भी!
HAWAITITIO
ज्ञानाराधना
मेवाड़ के मुनि-संघ में इस समय बड़ी विशृखलता थी। महान क्रिया पात्र श्री वेणीचन्दजी महाराज के सान्निध्य में श्री एकलिंग जी द्वारा संयम ग्रहण करने से सम्पूर्ण मेवाड़ जैन संघ में एक नई आशा की लहर व्याप्त हो गई।
तीस वर्ष की उम्र में दीक्षित होकर भी नये मुनिश्री में ज्ञानाराधना की बड़ी ललक थी। तत्कालीन परिस्थितियों में ज्ञानाराधना का सफल साधन मिलना भी आसान नहीं था।
विदुषी महासतीजी श्री नगीनाजी तत्कालीन महासती मंडल में बड़ी प्रभावशाली विद्वान महासती जी थीं। नवदीक्षित मुनिश्री को शास्त्राभ्यास देने का बीड़ा उठाया।
तीन वर्ष कल्पानुसार सेवा में रहकर मुनिश्री को शास्त्रों का सुन्दर अभ्यास करा दिया। आचार्य-पदोत्सव
प्रस्तुत ऐतिहासिक विवरण से पाठक यह तो अच्छी तरह जान ही चुके हैं कि पूज्य श्री मानजी स्वामी तथा कविराज श्री रिखबदासजी महाराज के स्वर्गवास के बाद मेवाड़ की मुनि-परम्परा का अभ्युदय रुक-सा गया। जो मुनि थे, वे बहुत ही कम थे और जो थे वे भी बिखरे हुए थे। उस स्थिति में मेवाड़ श्रावक संघ बड़ी निराशा की स्थिति में चल रहा था। जब से हमारे चरित-नायक ने संयम लिया, संघ में अभ्युदय की फिर नई लहर चल पड़ी।
(PARD
0000
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org