Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आचार्य श्री एकलिंगदासजी महाराज | १६५
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दीक्षा के प्रारम्भिक दस वर्षों में ही सात-आठ नये शिष्यों की उपलब्धि हो गई। इस तरह मुनि-संघ भी पुष्ट होने लगा।
मुनिसंघ में एक कालूराम जी महाराज थे। ये श्री तेजसिंहजी महाराज के सम्प्रदाय के पड़वाई थे। मेवाड़ सम्प्रदाय के आम्नायानुसार विचरते थे । मेवाड़ जैन संघ के प्रत्येक जागरूक सदस्य के अनुसार इन्हें भी संघ के नेतृत्व का प्रश्न बड़ा अखर रहा था।
इनका चातुर्मास राशमी था। ये एकाकी विचरते थे ।' किन्तु बड़े प्रखर और सक्रिय कार्यकर्ता थे।
सम्प्रदाय में आचार्य की कमी से कई विक्षेप और शैथिल्य आ रहे थे। उनका निवारण आचार्य की स्थापना से ही हो सकता था।
श्री कालूरामजी महाराज ने श्रावकों को प्रेरित किया। श्रावकों ने इस समयोचित प्रस्ताव का बड़ी उमंग के माथ समर्थन किया । तत्कालीन स्थानीय हाकिम मगनलाल जी, नायब हाकिम जोधराजजी सिलेदार लालचन्दजी महाशय भी प्रस्तुत उत्सव में अच्छा सहयोग देने को सहमत हो गये ।
चातुर्मास में समुचित वातावरण तैयार कर उसी वर्ष पौष शुक्ला १० को सनवाड़ में मेवाड़ संघ की बैठक सम्पन्न हुई । उसमें आचार्यपद बालब्रह्मचारी पूजनीय श्री एकलिंगदासजी महाराज को देना निश्चित किया तथा ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी बृहस्पतिवार को राशमी में आचार्योत्सव करना निश्चित किया।
मेवाड़ संघ की बैठक के निश्चयानुसार उपर्युक्त तिथि पर आचार्य-पदोत्सव की राशमी में बड़ी तैयारियाँ हुई । 'ओच्छव' की पुस्तिका के अनुसार उपर्युक्त तिथि पर श्री एकलिंगदास जी महाराज ठा० ६, पंडित-रत्न श्री नेमचन्दजी महाराज (अमरसिंहजी महाराज की सम्प्रदाय के ) ठा०४, श्री कालूरामजी महाराज ठा० १ तथा महासती जी श्री कंकूजी महाराज ठा० ६, श्री वरदूजी महाराज ठा० १५, इन मुनिराज एवं महासतियों के अलावा स्वधर्मी लगभग दो हजार और इतने ही अजैन भाई-बहनों की शानदार उपस्थिति थी।
बहुत ही सुन्दर समारोह के साथ पूज्य श्री मानजी स्वामी के पाट पर श्री एकलिंगदास जी महाराज को आचार्य के रूप में स्थापित किया ।
आचार्यपद चद्दर समर्पण के अवसर पर उपस्थित चतुर्विध संघ ने बड़ी श्रद्धा के साथ अपने नये आचार्य को स्वीकार किया।
उक्त अवसर पर उपस्थित प्रसिद्ध क्रान्तिकारी, स्पष्ट विचारी, दार्शनिक श्री बाड़ीलाल मोतीलाल शाह (अहमदाबाद) ने श्रावक संघों को सम्प्रदाय के प्रति श्रद्धावान और समर्पित रहने का आह्वान किया। उन्होंने श्रावक संघों से अपील की कि आचार्य तो आज हमने स्थापित कर दिये हैं, चादर पूज्यश्री के कन्धों पर धर दी है, किन्तु इसका गौरव कायम रखना चारों तीर्थों का कर्तव्य है । आचार्य के महत्त्व को बढ़ाने में प्रत्येक को योगदान देना चाहिए । जहाँ आचार्य श्री पधारें, आसपास के सज्जनों को परिवार सहित वहां पहुंचकर सेवा करनी चाहिए । सम्प्रदाय के नियमों की प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिपालना होनी चाहिए।
उस अवसर पर श्रावक-संघों ने सम्प्रदाय के हित में जो निर्णय लिए उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।
१. परम्परागत आम्नाय के अनुसार प्रतिदिन प्रतिक्रमण में ४ लोगस्स का ध्यान, पक्खी के दिन १२ लोगस्स का ध्यान, बैठती चौमासी, उठती चौमासी, फाल्गुनी चौमासी दो प्रतिक्रमण और २० लोगस्स का ध्यान, संवत्सरी पर दो प्रतिक्रमण और ४० लोगस्स का ध्यान करना चाहिए।
२. दो श्रावण हों तो संवत्सरी भाद्रपद में तथा दो भाद्रपद हों तो संवत्सरी दूसरे भाद्रपद में करनी चाहिए। ३. संत सतीजी के चातुर्मास की विनती आचार्य श्री के पास करनी चाहिए।
४. अपने आचार्य उपस्थित हों तो अन्य साधुओं का व्याख्यान नहीं हो। व्याख्यान आचार्य श्री का ही होना योग्य है।
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१ मुनि अकेले थे, परन्तु समुदाय की आमनाय मुजब चलते थे।– 'ओच्छव' पृष्ठ ३ । २ ओच्छव की पुस्तिका, पृ०६
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