Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१३४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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सिद्धि ने उसमें और चार चाँद लगा दिये तो सर्वत्र तपस्वीजी के यशस्वी जीवन के गुणगान होने लगे। यश सुज्ञों के लिये उल्लास का विषय होता है तो विद्वेषियों के लिये क्लेश का विषय भी बन जाया करता है।
नाथद्वारा के शोभा बनिये का आक्रोश लगभग ऐसे ही क्लेश का परिणाम था, जो तीव्र साम्प्रदायिकता के धरातल पर पनपा था।
"गुणे खलः भयं” की उक्ति के अनुसार यशस्वियों को दुष्टों का सामना प्रायः करना पड़ा।
हमारा इतिहास बताता है कि मीरां को भी विष के प्याले का सामना करना पड़ा। यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि लोकाशाह की मृत्यु विष प्रयोग से ही हुई।
दयानन्द सरस्वती को काँच पिलाया गया था। मानवता का लम्बा इतिहास ऐसे कई कुकर्मों के काले धब्बों को अनचाहे ही उठाए चला आ रहा है, जो मानव के भीतर छुपे राक्षस का प्रमाण देते आ रहे हैं।
तपस्वीराज श्री रोड़जी स्वामी को भी विष दे दिया गया।
मुनि को विष देना किसी अन्य की अपेक्षा बहुत ही आसान है। मुनि आहार लेकर भोगते ही हैं। विष देने के बाद उसके टलने की फिर कोई सम्भावना नहीं रहती । बशर्ते कि विष भोजन में प्रकट न हो जाए।
श्री रोड़जी स्वामी एक बार फिर विद्वेष की लपट में आ गये । किन्तु अद्भुत बात हुई कि विष अपना काम नहीं कर सका । तपस्वीजी की प्रचण्ड तप-अग्नि में विष कहीं जलकर निःशेष हो गया जिसकी कहीं सूचना तक नहीं मिली। इतना ही नहीं ढाल के अनुसार विष ने अमृत का काम किया। यह वात असम्भव नहीं है। भीम का जीवन साक्षी है कि उसे कौरवों द्वारा विष दिया गया, किन्तु परिणामस्वरूप भीम का बल उससे दुगुना हो गया ।
स्वामीजी को विष किसने दिया, कहाँ दिया, इसकी कोई जानकारी नहीं मिल पाई । विष अवश्य दिया गया, यह ढाल से स्पष्ट है। पारणा भी नहीं कर सके
साम्प्रदायिकता बुरी क्यों है, यह एक प्रश्न है। इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि साम्प्रदायिकता विष पैदा करती है । विष, वह जो मानवता को मारदे, महानता को ठुकरादे तथा सच्चाई को नकार दे ।
पाठक पढ़ चुके हैं कि उस समय जब श्री रोड़जी स्वामी का अभ्युदय काल था, मेवाड़ में श्रद्धा-भेद की एक लहर चली थी । लहर में एक विष था। स्वामीजी को कई जगह ऐसे विषपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा।
आमेट स्वामीजी आये । अनजान में या अन-पहचान में हाट पर ठहराने को किसी विमति ने स्थान दिया। किन्तु उसे ज्यों ही ज्ञात हुआ कि ये तो रोडजी स्वामी हैं, हमारी श्रद्धा के नहीं हैं, उसने उन्हें तुरन्त चले जाने को कह दिया। स्वामीजी को निकलने को कहा । उस समय रात थी, ऐसा सुनने में आता है । ज्यों-त्यों उसे समझाकर रात तो ठहरे, लेकिन सूर्योदय होते ही, स्वामीजी ने वहाँ से विहार कर दिया। वह पारणे का दिन था। पारणा 'लावा' (सरदारगढ़) आकर दिया।
इस घटना के साथ कई प्रश्न पैदा होते हैं । आमेट जैसे बड़े क्षेत्र में टिकने की जगह का न मिलना कम आश्चर्य की बात नहीं है । इसका समाधान यह हो सकता है कि आमेट में जैन समाज का बसाव जितना आज है, उतना उस समय नहीं रहा होगा । जो जैन थे, वे विपरीत हो गये होंगे । भयंकर विद्वेष को देखकर स्वामीजी ने ठहरना उचित नहीं समझा होगा। यह निश्चित है कि स्वामीजी को वहाँ स्थान-कष्ट का अनुभव अवश्य करना पड़ा। सिर पर चढ़ बैठा
स्वामीजी कहीं एकान्त में ध्यान कर रहे थे। कोई मूर्ख सिर पर पत्थर धर कर उस पर ही चढ़ गया। ऐसे काण्ड प्रायः अज्ञानता, कौतूहल या दुष्टता से हो जाया करते हैं। १. कोई खोटो आहार बेरावियो जी नाख्यों नहीं मुनिराज ।
विष अमृत होइ परगम्यो वांकी दया माता कीदी सहायजी ।। २. आमेट स्वामीजी पधारियाजी उतर्या हाटां के माय ।
परीसो तो दीधो अति घणो पारणो कोधो लावे जाय ।।
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