Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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घोर तपस्वी पूज्यश्री रोड़जी स्वामी | १३५
यह घटना कहाँ घटी, यह तो ज्ञात नहीं, किन्तु वह अपराधी छुप नहीं सका। सज्जनों के द्वारा उसे दंडित करने का उपक्रम भी किया गया। किन्तु स्वामीजी की दया-मया यहाँ भी ढाल बनकर उसे बचाने को सक्रिय हो गई। आहार-त्याग की घोषणा के साथ ही अपराधी को अभय मिल गया।
मानवता को अपनी असीम करुणा से अभिसिञ्चित करने वाले ऐसे सत्पुरुषों ने ही भारत के गौरव को मण्डित किया है। यह सब कैसे सहा?
स्वामीजी यह सब कैसे सह गये ? इस प्रश्न का उत्तर पाने को हमें जैन धर्म की साध्वाचार-परम्परा के इतिहास में जाना चाहिए ।
भगवान महावीर जब कष्ट सह रहे थे, इन्द्र मदद को आया । भगवान ने मन ही मन उत्तर दिया-"हे इन्द्र ! मेरा कर्जा मुझे ही उतारना है ! कर्म दर्शन के अनुसार कर्ता ही भोक्ता है। इस दर्शन को समझ लेने के बाद व्यक्ति में सहनशीलता का एक नया स्रोत उमड़ आता है। यही एक सम्बल होता है, साधकों का, जो उन्हें तूफानों में भी अडिग रहने की क्षमता प्रदान करता है।
श्री रोड़जी स्वामी उस परम्परा की एक चमकती हुई कड़ी थे जिसने केवल सहना सीखा। स्वामीजी सहते रहे, कष्ट भी, प्रहार भी, विष भी, जो भी आया सब कुछ सहा । 'हम विष पायी जनम के' यह साहित्यिक उक्ति संभवतः ऐसे मुनियों में ही मूर्त रूप ले पाई।
स्वामीजी कर्म सिद्धान्त के आस्थावान प्रतीक थे । वे ‘मेरा किया मैं भोगूं' इस सनातन निश्चय के सहारे सब कुछ सह गये। पवित्र स्थान
श्री रोड़जी स्वामी अपने त्याग, तप तथा समुज्ज्वल संयम ज्योति से जगमगाते जिए। जब तक जिए, दैन्यरहित जिए । निर्दोष जिए, यथार्थ जिए।
___ कदमों ने साथ दिया, बराबर विचरते रहे । अन्तिम नौ वर्ष उदयपुर में स्थानापन्न रहे । यह उल्लेख श्रीमानजी स्वामी रचित 'गुरुगुण' में है। 3
श्री रोड़जी स्वामी के जीवन का चढ़ाव बेशक शानदार था, किन्तु ढलाव उससे भी कहीं अधिक चमकदार रहा।
जीवन की संध्या आध्यात्मिक जीवन का परिपाक काल होता है। यदि यहाँ आकर साधक थोड़ी भूल कर बैठे तो जीवन के परिपाक में एक विद् पता आ जाया करती है । स्वामीजी इस दृष्टि से बड़े सावधान थे ।
मृत्यु से पूर्व साढ़े चार दिन का उन्हें संथारा आया । यह उल्लेख मानजी स्वामी की ढाल में स्पष्ट है ।
१. बालू रेत में काउस्सग करे जी मानवी आयो तिणवार । सिला मेली माथा ऊपरे पापी चढ़ ऊभो तिणवार ।। मानवी ने रावले बुलावियोजी रोक्यो छ तिणवार ।
स्वामी तो रोड़जी इम कहे इण ने छोड़ो तो लेसू अहार ।। २. स्वामीजी मन में विचारियोजी पूर्वला भव ना पाप । . म्हारा मने सहना पड़सी किणपे नहीं करनो कोप ।। ३. पूज्य रोड़ीदासजी थाणे रह्या रे नव वसों लग जोय ।
आतम कारज सारिया रे र्भावयण. उपगार विविध होय ।। ४. छेलो अवसर आवियो रे, भ० संथारो कियो उल्लास । दिवस साढ़ा चार में कियो सुरग में वास ।।
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