Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आत्मार्थी श्री वेणीचंदजी महाराज
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पूर्ण
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आत्मार्थी श्री वेणीचन्द जी महाराज का जन्मस्थान चाकूड़ा (जिला उदयपुर) है। ये ओसवंशीय मादरेचा कुलोत्पन्न हैं।
कविराज श्री रिखबदास जी महाराज के पास इन्होंने संयम लिया था । जन्म एवं संयम के समय के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती।
श्री वेणीचन्द जी महाराज की संयम-रुचि बड़ी प्रखर थी । उत्कृष्ट क्रिया-पात्र थे । त्याग-तप में रमण करने वाले उच्चकोटि के सन्त-रत्न थे ।
श्री रिखबदास जी महाराज तथा श्री बालकृष्ण जी महाराज के स्वर्गवास के बाद मेवाड़ संघ को अपने यहाँ मुनिराजों की बड़ी कमी का सामना करना पड़ा । मुनिराज बहत कम थे, जो थे वे विशृखलित हो चुके थे। फलतः श्री वेणीचन्द जी महाराज को कुछ समय एकाकी भी विचरना पड़ा । किन्तु उस स्थिति में भी मुनिश्री की उत्कृष्ट संयमसाधना में कोई कमी नहीं आई। रोग मिट गया
एकाकी श्री वेणीचन्द जी महाराज के पांवों में एक बार बड़ी पीड़ा हो गई। चलना-फिरना बन्द हो गया। गृहस्थों तथा साध्वियों का अत्याग्रह होते हए भी उन्होंने किसी अन्य की सेवा स्वीकार नहीं की। तेला तप स्वीकार कर ध्यानस्थ हो गये।
वास्तव में चौथे दिन महाराज श्री स्वयं पारणा लेकर आये । तप के प्रभाव से व्याधि चली गई। केसर की वृष्टि हुई
तपस्वी जी की संयम-साधना में अपूर्व तेज था। देव भी दर्शनों को आ जाया करते थे, ऐसी अनुश्रुति है । एक बार आप पर केसर-वृष्टि भी हुई, जो कई उपस्थित श्रावकों ने प्रत्यक्ष अनुभव की, ऐसा प्राचीन व्यक्ति कहा करते हैं।
श्री वेणीचन्द जी महाराज का विचरण-क्षेत्र मुख्यतया मेवाड़ ही रहा । श्रावक संघ अडिग रहे
जैसा कि पाठक जान ही चुके हैं, तपस्वी जी का समय मेवाड़ संघ के लिए बड़ी कठिनाई का समय था । मेवाड़ सम्प्रदाय में मुनिराज बहुत कम थे, जो थे वे बिखरे से थे।
स्थानकवासी समाज में मुनिराजों का ही प्रधान संबल होता है । मुनिसंघ के क्षीण होने से समाज को धर्मसंबल की हानि उठानी पड़ती है। मेवाड़ संघ उस समय कुछ ऐसी ही स्थिति में था।
- मेवाड़ के धर्म-संघ की इस कमी को देखकर तेरापंथी ही नहीं स्थानकवासी समाज की भी कई पड़ोसी सम्प्रदायें मेवाड़ को अपना अनुगामी बनाने का प्रयास करने लगीं।
यही वह समय था, जब अन्य सम्प्रदाय के आचार्य और प्रभावशाली सन्त मुनि उदयपुर और मेवाड़ के गांवों में धर्म-प्रचार तो करते ही, साथ ही अपनी 'गुरु आम्नाय' भी देने लगे । स्वसम्प्रदाय में मुनियों की कमी देखकर कुछ लोगों ने ऐसी धारणाएँ की भी, जिसका परिणाम आज मेवाड़ के कुछ क्षेत्रों का सम्प्रदायवाद है ।
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