Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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११६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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तोलाशाह एवं कर्माशाह
तोलाशाह महाराणा सांगा (वि० सं०१५६६-१५८४) के समय मेवाड़ का दीवान था।' इस पर महाराणा सांगा का पूर्ण विश्वास था और वह उसका मित्र भी था।२ महाराणा सांगा द्वारा किये गये मेवाड़ राज्य के विस्तार में तोलाशाह के अविस्मरणीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । तोलाशाह का पुत्र कर्माशाह महाराणा रत्नसिंह द्वितीय (वि० सं १५८४-१५८८) का मन्त्री था। रत्नसिंह के अल्प शासनकाल में कर्माशाह के कार्यों का संक्षिप्त परिचय शत्रुजय तीर्थ के शिलालेख में मिलता है। मेहता चीलजी
जालसी मेहता का वंशज मेहता चीलजी महाराणा सांगा के समय से ही चित्तौड़गढ़ का किलेदार था । . उस काल में स्वामीभक्त एवं वीर प्रकृति के दूरदर्शी योद्धा को ही किलेदार बनाया जाता था। बनवीर (वि० सं० १५६३-१५६७) के समय में भी यही किलेदार था, किन्तु इसे बनवीर का चित्तौड़ पर आधिपत्य खटक रहा था। उधर महाराणा उदयसिंह (वि० सं० १५६४-१६२८) अपने पैतृक अधिकारों एवं दुर्ग को प्राप्त करने के लिए तैयारी कर रहे थे। अवसर देखकर चीलजी मेहता एवं कुम्भलगढ़ का किलेदार आशा देपुरा के मध्य उदयसिंह को चित्तौड़ वापस दिलाने का गुप्त समझौता हो गया । योजनानुसार चीलजी ने बनवीर को सुझाव दिया कि “किले में खाद्य-सामग्री कम है, रात्रि में किले का दरवाजा खोलकर मँगाना चाहिए।" बनवीर ने स्वीकृति दे दी । एक दिन रात्रि को किले का दरवाजा खोल दिया गया, कुछ बैलों एवं भैंसों पर सामान लादकर उदयसिंह कुछ सैनिकों के साथ किले में घुस आया । छुटपुट लड़ाई के बाद महाराणा उदयसिंह का किले पर अधिकार हो गया। ची लजी मेहता की इस सूझ-बूझ एवं कूटनीति के परिणामस्वरूप ही चित्तौड़ अर्थात् मेवाड़ पर उसके वास्तविक अधिकारी उदयसिंह का अधिकार हो सका। कावड़िया भारमल
१५६४-१५लगढ़ का किलेदार को सुझाव दिया एक दिन
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प्रसिद्ध योद्धा कावड़िया भारमल व उसके पूर्वज अलवर के रहने वाले थे। महाराणा सांगा भारमल की सैनिक योग्यता एवं राजनीतिक दूरदर्शिता से काफी प्रसन्न थे। इसी कारण उसे तत्कालीन सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रणथम्भौर के किले का किलेदार नियुक्त किया। बाद में जब बूंदी के हाड़ा सूरजमल को रणथंभौर की किलेदारी मिली, उस समय भी भारमल के हाथ में एतबारी नौकरी और किले का कुल कारोबार रहा ।' यह महाराणा की उस पर विश्वसनीयता का द्योतक था। महाराणा उदयसिंह ने भारमल की सेवाओं से प्रसन्न होकर वि० सं० १६१० में उसे
-१ ओसवाल जाति का इतिहास, पृष्ठ ७०।। २ राजस्थान भारती (त्रैमासिक) भाग-१२, अंक-१, पृष्ठ ५३-५४ पर श्री रामवल्लभ सोमानी का लेख
'शत्रु'जय तीर्थोद्धार प्रबन्ध में ऐतिहासिक सामग्री' । ३ ओझा-राजपूताने का इतिहास, भाग-२, पृष्ठ ७०३ । ४ एपिग्राफिया इन्डिका, माग-२, पृष्ठ ४२-४७ । ५ कविराजा श्यामलदास-वीर विनोद, द्वितीय भाग, पृष्ठ ६४ । ६ आशा देपुरा माहेश्वरी जाति का था एवं महाराणा सांगा के समय से ही कुभलगढ़ का किलेदार था। (द्रष्टव्य
वीर विनोद, द्वितीय भाग, पृष्ठ ६२) । ७ वीर विनोद, द्वितीय भाग, पृष्ठ ६४ । ८ वही, पृष्ठ २५२ । 6 ओझा-राजपूताने का इतिहास, भाग-२, पृष्ठ ६७२ एवं १३०२ ।
वीर विनोद, द्वितीय भाग, पृष्ठ २५२ ।
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