Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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९८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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कंकूरे पगल्ये मारासा पधारिया । केसर रे पगल्ये मारासा पधारिया ।। ओरा गामां हीरा मोती निपजेजी, म्हांणे गामां रतनां री खान ।।
थोड़ी अरज घणी विनतीजी, लुललुल लागूली पाँवजी ।। स्थानक में पधारने पर जो बधावे गाये जाते हैं उनमें श्रावक-श्राविकाओं के जनम-जनम के भाग जग गये हैं और पूर्व जन्म के अन्तराय टूटते हुए नजर आते हैं । इस अवसर पर खुशियों का कोई पार नहीं, कंकू केसर घोटकर मोतियों के चौक पुराये जा रहे हैं । हृदय में इतनी उमंग कि समा नहीं रही है ।
सैया गावो ए बधावो हगेमगे, आज रो दीयाड़ो जी भलोई सूरज उगियो । हरखे हिया में जी उमाबो म्हारा अंग में करू म्हारा मारासा री सेवा ।। दरसण पाऊँजी गुण आपरा, गाऊँजी परभवे बांध्याजी सामीजी अणी भवे ।
आज टूटो छै अन्तराय उबऱ्या सैया गावो ए बधावो .............. कर्म को लेकर जीवन की जड़े बहुत खंखेरी गई हैं 'जैसा कर्म वैसा फल' जैसे आचार को लेकर आचरण के मांत-माँत के मुरब्बे तथा खट्टी-मीठी चटनियों के स्वाद हमारा यह जीव चखता रहता है । विषय वासना के वासंतीकुन्ज इसे इतर-फूलेल की फुनगियाँ दे-देकर बावला किये रहते हैं। कर्मों का जाल-जंजाल बडा ही विचित्र और वैविध्य लिए है अपने-अपने कर्म और अपने-अपने धर्म ही तो अन्ततोगत्वा मानव की मूल पूंजी बनते हैं कर्मों की इस दार्शनिकता के कई चौक धर्म-स्थानों की शोभा बने हुए हैं जिनमें जीव को बुरे कार्य तजकर सदैव अच्छे कार्य की ओर प्रवृत्त करने को बाध्य किया जाता है । कर्म चौक की एक छटा द्रष्टव्य है
'करम नचाबे ज्यूं ही नाचे, ऊँचा होवण ने सब करता ।
नीचा होवण ने कोई ना राजी नन्द्या विरथा क्यूं करता । मोय चाख मोटो मद पीवै ओगण पारका यूँ क्यू गिण थारा, ओगण थने नहीं दीस,
अनेक ओगण है मारे रे आतमा ग्यानी वचन पकड़ो रास्ता।'
थोकड़ों के निराले ठाठों में आत्मनिन्दा एवं आत्मभर्त्सना के साथ-साथ सांसारिक मोहमाया, रागद्वेष, मानापमान आदि को तिलांजलि दे जीव के सद्कार्य की ओर लगाया जाता है । मरणासन्न व्यक्ति को मृत्यु से पूर्व भी ये थोकड़े सुनाये जाते हैं । इन थोकड़ों में जीवन के श्यामपक्ष को ही अधिक वणित किया गया है आत्मालोचन के रूप में जहाँ एक ओर इन थोकड़ों ने आत्म-निन्दा भर्त्सना की अमानवीय वृत्तियों का पर्दाफाश किया वहाँ जरजरे जीवन को झकझोरते हुये बीते जीवन की कारगुजारियों का लेखा-जोखा कर उसका प्रायश्चित्त करते हुए जीव को आस्थावान-आशावान बनाया है। सुपारी, पाँचबटाऊ तथा आत्मनिन्दा के थोकड़ों में इस भावना की गहराई देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए आत्मनिन्दा के थोकड़े का यह अंश लिया जा सकता है।
आठ करमां री एकसो ने अड़तालीस प्रकृति ऊठेसण थानक थारा जीव दोरा लागरया छ रे बापड़ा सीलवरत, गांजो, भांग, तमाखु, दाखरो तजारो हरी लीलोती रा सोगन लेइने भांगसी तो थारा जीवरी गरज कठातूं सरसी रे बापड़ा थारी जड़ कतरीक छेरे बापड़ा, म्हारा म्हारा करीरयोछै म्हारा माता, म्हारा पिता, म्हारा सगा, म्हारा सोई, म्हारा न्याती, म्हारा गोती, म्हारा माई, म्हारा बन्धव, म्हारा भरतार, म्हारा पुतर, म्हारा दास, म्हारा दासी, म्हारी हाट, म्हारी हवेली, म्हारा-म्हारा करीयो छै थारा कूण छे ने यूं कंडो छेरे बापड़ा?'
नाना जीव-योनियों में भटकते-भटकते जीव जब मानवीय गर्भ धारण करता है, तब एक ओर तो यह लगता हैं कि जोव ने सर्वश्रेष्ठ योनि धारण की है परन्तु दूसरी ओर गर्भावास में उसे जो यातनाएँ सहनी पड़ती हैं उससे यह उद्भासित होता है कि जीव जन्म ही न ले तो अच्छा । गर्भचिंतारणियों में गर्भस्थ शिशु की चितना के साथ-साथ मानवीय जीवन को सम्यक् दृष्टि से समतावान बनाने की सीख भी मिलती है । आठ कर्मों की कालिख से बचते हुए पांच महाव्रत धारणकर जीवन को सार्थक बनाने की कला इन चितारणियों में देखने को मिलती है।
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