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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
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धर्म, दर्शन और संस्कृति की उन्होंने युगानुकूल व्याख्या की है । उन्होंने कहा है, कि जो गल-सड़ गया है, उसे फेंक दो और जो अच्छा है, उसकी रक्षा करो। उनकी इस बात को सुनकर कुछ लोग धर्म के खतरे का नारा लगाते हैं । इसका अर्थ केवल इतना ही हो सकता है, कि उन लोगों का स्वार्थ खतरे में है, किन्तु धर्म तो स्वयं खतरों को दूर करने वाला अमर तत्त्व है ।
शिथिलाचार का विरोध :
उपाध्याय जी महाराज ने अपने सुधारवादी दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए एक बार कहा था - " लोग सुधार के नाम से क्यों डरते हैं ? सुधार डरने की वस्तु नहीं है । वह तो जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है । सुधार से घबराने वाला व्यक्ति कभी धर्म को समझ नहीं सकता । सुधार से न तो कभी धर्म विकृत होता है, और न धर्म की परम्परा ही कभी दूषित होती है । सुधार के विना साधना और साधना -हीन सुधार - दोनों ही वास्तव में पंगु हैं ।"
वे समाज और जीवन - दोनों का सुधार चाहते हैं । जैनसंस्कृति के प्रधान अंग हैं - श्रमण, सन्त एवं साधु-जन । यदि वे स्वयं विकृत हैं, तो समाज का सुधार कैसे होगा ? सन्त को अन्दर और वाहर - दोनों से पावन एवं पवित्र रहना चाहिए । सन्त-जीवन का वे आदर अवश्य करते हैं, परन्तु सन्त - जीवन की कमजोरियों को वे कभी क्षमा नहीं करते । सन्त जीवन सदा निष्कलंक रहना चाहिए । उपाध्याय जी महाराज के विचार में सुधार का अर्थ यह नहीं है, कि समाज को तो सुधार का उपदेश दिया जाए, और सन्त का जीवन स्वयं दूषित रहे ।
श्रमण-संघ में वे किसी भी प्रकार के शिथिलाचार को देखना नहीं चाहते हैं । शिथिलाचार, कदाचार और हीनाचार का सदा से उन्होंने डटकर विरोध किया है । पाली काण्ड पर उन्होंने जो वक्तव्य दिया था, उससे जाना जा सकता है, कि वे कदाचार के कितने घोर विरोधी रहे हैं । पाठकों की जानकारी के लिए उनके उस वक्तव्य
के
कुछ अंश मैं यहाँ पर दे रहा हूँ । उस वक्तव्य का शीर्षक है- "आप से कुछ कहना है " - और वह इस प्रकार है
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