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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व "अप्पा सो परमप्पा ।"-आत्मा परमात्मा बन सकता है !
यदि हम गहराई में उतर कर इस स्थिति और मान्यता पर विचार करें, तो मालूम होगा कि इसके पीछे एक सद्भावना और सहृदयता का वातावरण रहा हुआ है, जो हमें पापी, दुराचारी से नहीं, पाप और दुराचार से घृणा करने के लिए वाध्य और अग्रसर करता है । इसका भाव यह है कि जीवन पतन की चाहे कितनी ही निम्नतम कोटि पर क्यों न पहुँच जाए, फिर भी उसमें उत्थान की किरण चमकती रहती है। क्योंकि उसके अन्तर में शिवत्व आसन जमाए जो बैठा है। वह मूलतः शुद्ध है। उस पर जो भी मालिन्य है, वह उसका निजी नहीं, वैभाविक है। वह सदा ऊर्ध्वमुखी है। ज्ञातासूत्र में आत्मा के ऊर्ध्वमुखी भाव के सम्बन्ध में जो तुंबे का दृष्टान्त है, उसका उपाध्याय श्री जी ने जव- मर्मस्पर्शी विश्लेषण किया, तो राष्ट्रपति ने इस चर्चा में बड़ा रस लिया। इसी प्रसङ्ग में आत्म-विकास के चौदह गुणस्थानों की चर्चा भी वहुत महत्त्वपूर्ण रही।
"जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य का उद्गम स्थान एक है, फिर एक अर्धमागधी में और दूसरा पाली में यह महान् भेद क्यों ?" राष्ट्रपति के इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देते हुए उपाध्याय श्री जी ने कहा कि-"पाली तत्कालीन विहार की जनपद-भाषा थी। वौद्धसाहित्य लिपिबद्ध पहले हुआ और जैन-साहित्य बाद में । बौद्ध-साहित्य मागधी का पूर्व-कालीन रूप है। जैन-साहित्य की प्रथम वाचना पटना में, दूसरी मथुरा में और अन्तिम भगवान् महावीर से ६८० वर्प बाद वल्लभी (गुजरात) में हुई। अपनी इस लम्बी यात्रा के कारण मागधी, मागधी न रही, प्रत्युत सौरसेनी आदि इतर भाषाओं का पर्याप्त पुट मिल जाने से अर्धमागधी कहलायी । यह मागधी का उत्तरकालीन रूप है ।
___"कई जैन-भाइयों की ओर से मुझे सूचना मिली है कि जैन हिन्दू नहीं, वे उनसे अलग हैं। इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ?" राष्ट्रपति के इस सामयिक प्रश्न का उत्तर देते हुए उपाध्याय श्री जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा-"जैन कहीं आकाश से नहीं बरस पडे हैं । वे सब महान् हिन्दू जाति के ही अंग हैं । जातीयता, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं। परन्तु, उसके धार्मिक विचार तथा आचार वैदिक धर्म से अलग है। हिन्दू एक जाति है,