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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
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दशांग-सूत्र में इसके वर्णन का एक स्वतंत्र अध्याय है। अतः विशेष जिज्ञासु वहाँ देख सकते हैं। उपलब्ध आगम साहित्य में, जहाँ तक पता है, शायद यही एक घटना है, जो भगवान् इस प्रकार गृहस्थ के कार्य-भवन में ठहरे हैं। इससे भगवान् का दलितों के प्रति प्रेम का पूर्ण परिचय मिल जाता है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ-साहूकारों की अपेक्षा, भगवान् ने एक कुम्हार को कितना अधिक महत्व दिया है ? विश्ववंद्य महापुरुष का एक साधारण कुम्हार के घर पर पधारना कोई मामूली घटना न समझिएगा।
भगवान् महावीर के वर्ण-व्यवस्था सम्वन्धी विचार अतीव उग्र एवं क्रान्तिकारी थे। वे जन्मतः किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र आदि नहीं मानते थे। जहाँ कहीं काम पड़ा है, उन्होंने कर्तव्य पर ही जोर दिया है । इसके विषय में उनका मुख्य धर्म-सूत्र यह था
"कम्मुणा भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिनो।
वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।" अर्थात्-"जन्म की अपेक्षा से सव के सब मनुष्य हैं। कोई भी व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शद्र होकर नहीं आता। वर्णव्यवस्था तो मनुष्य के अपने स्वीकृत कर्तव्यों से होती है। अतः जो जैसा करता है, वह वैसा ही हो जाता है अर्थात् कर्तव्य के वल से , ब्राह्मण शूद्र हो सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है।
भगवान् महावीर के संघ में एक मुनि थे। उनका नाम था हरिकेशी । वे जन्मतः चाण्डाल कुल में पैदा हुए थे। उनका इतना त्यागी एवं तपस्वी जीवन था कि बड़े-बड़े सार्वभौम सम्राट तक भी उन्हें अपना गुरु मानते थे और सभक्ति-भाव उनके चरण छते थे। और तो क्या, बहुत से देवता भी इनके भक्त हो गए थे। एक देवता तो यहाँ तक भक्त हुआ कि हमेशा तपस्वी जी की सेवा में ही रहने लगा। इन्हीं घोर तपस्वी हरिजन मुनि हरिकेशी की महत्ता के सम्बन्ध में पावापुरी की महती सभा में भगवान् महावीर स्वयं फरमाते हैं
"सक्खं खु दोसइ तवो-विसेसोनदीसइ जाइ-विसेस कोई। . सोवागपुत्त हरिएस साहु, जस्सेरिसा इड्ढि महारणभागा ||"