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.. बहुमुखी कृतित्व ....... : "जन-धर्म एक: विशाल और विराट धर्म है। यह मनुष्य की 6. आत्मा को साथ लेकर चलता है। यह किसी पर बलात्कार नहीं
करता। साधना में मुख्य तत्त्व सहज-भाव और अन्तःकरण की स्फति है। अपनी इच्छा से और स्वतः स्फूति से जो धर्म किया जाता है,
वस्तुतः वही सच्चा धर्म है, शेष धर्माभास मात्र होता है । जैन-धर्म में . किसी भी साधक-से यह नहीं पूछा जाता कि- 'तू ने कितना किया है ?
वहां तो यही पूछा जाता है कि-तू ने कैसे किया है ?' सामायिक, पौषध या नव-कारसी करते समय तू शुभ संकल्पों में, शुद्ध भावों के प्रवाह में बहता रहा है या नहीं ? यदि तेरे अन्तर में शान्ति नहीं रही, तो वह क्रिया केवल क्लेश उत्पन्न करेगी-उससे धर्म नहीं होगा, क्योंकि“यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव शुन्याः ।" . . .
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"वर्तमान युग में दो प्रयोग चल रहे हैं एक अणु का, दूसरा सहअस्तित्व का । एक भौतिक है, और दूसरा आध्यात्मिक । एक मारक है, दूसरा तारक । एक मृत्यु है, दूसरा जीवन । एक विष है, दूसरा अमृत ।
- अणु प्रयोग का नारा है-'मैं विश्व की महान् शक्ति हूँ, संसार का. अमित बल हूँ, मेरे सामने झुको या मरो। जिसके पास में नहीं हूँ, उसे विश्व में जीवित रहने का अधिकार नहीं है क्योंकि मेरे अभाव में उसका सम्मान सुरक्षित नहीं रह सकता।' .. .. . .... “सहअस्तित्व का नारा है- 'प्रायो, हम सब मिलकर चलें, मिलकर बेठे, और मिलकर जीवित रहें, मिलकर मरे भी। परस्पर विचारों में भेद है, कोई भय नहीं। कार्य करने की पद्धति विभिन्न है, कोई खतरा नहीं क्योंकि तन भले ही भिन्न हों, पर मन हमारा. एक है। जीना साथ है, मरना साथ है, क्योंकि हम सव मानव. हैं और मानव एक साथ ही रह सकते हैं-विखर कर नहीं, बिगड़ कर नहीं।" - "आज की राजनीति में विरोध है, विग्रह है, कलह है, असन्तोष है और अशान्ति है । नीति, भले ही राजा की हो या प्रजा की-अपनेआप में पवित्र है, शुद्ध और निर्मल है। क्योंकि उसका कार्य जगकल्याण है, जग-विनाश नहीं। नीति का अर्थ है-जीवन की कसौटी, ". जीवन की प्रामाणिकता, जीवन की सत्यता । विग्रह और कलह को
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