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वहुमुखी कृतित्व कर विद्याध्ययन करने लगे । आप पाठशाला में सबसे पहले जाते और सवसे पीछे आते । बहुत से लड़के पाठशाला में ऊधम मचाया करते हैं। प्रतिदिन अध्यापक को क्रोध दिलाया करते है। परन्तु आप इन दोषों की कालिमा से अलग थे । आप अलहदा बैठे हुए अपनी पाठ्य-पुस्तक के पाठों को हृदयगत करते रहते थे। इस प्रकार विद्याध्ययन करते हुए चरित्र-नायक को सातवाँ वर्ष समाप्त होकर आठवाँ वर्ष प्रारम्भ ही हुआ था कि काल की गति कुटिल है। यह रंग में भंग किये विना चैन नहीं पाता।"
कविश्री जी ने गणि श्री उदयचन्द जी के 'जीवन-चरित्र' का संपादन सन् १९४८ में दिल्ली में किया था। इस जीवन-चरित्र में कवि जी महाराज की भाषा-शैली उदात्त और गंभीर तथा भाषा मधुर और सुन्दर है। पढ़ते समय पाठक को ऐसा अनुभव होता है कि वह जीवन-चरित्र को नहीं, बल्कि किसी उपन्यास को पढ़ रहा है। यह जीवन-चरित्र उपन्यास की शैली पर लिखा गया है। पाठकों में यह इतना लोकप्रिय हो चुका है कि अल्पकाल में ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। कविश्री जी की इस सून्दर शैली का अनुकरण अनेक विद्वान् मुनियों ने तथा अनेक विद्वान् गृहस्थों ने किया है। वर्तमान में कई जीवन-चरित्र कविश्री जी की इसी शैली और पद्धति पर लिखे गए हैं । 'आदर्श-जीवन' की अपेक्षा प्रस्तुत जीवनचरित्र में कविश्री जी की लेखन-कला का बहुत ही सुन्दर निखार आया है । इस दिशा में वह अन्य लेखकों के लिए आदर्श सिद्ध हुए हैं । कुछ उद्धरण देखिए
"मध्य रात्रि है, चारों ओर गहन अन्धकार छाया हुआ है। आँखें सारी शक्ति लगाकर भी मार्ग नहीं पाती है। सुन-सान जंगल ! आस-पास मनुष्य की छाया तक नहीं। सव ओर भय का साम्राज्य । अज्ञात पशु-पक्षियों की विचित्र ध्वनियाँ अन्धकार में और अधिक भीषणता उत्पन्न कर रही हैं। वर्षा की ऋतु है। काले बादल आकाश में गर्ज रहे हैं और वीच-बीच में बिजलियाँ कड़क रही हैं।"
"क्या आप बता सकते हैं, यह कौन युवक है ? संभव है, आपका संकल्प कुछ निर्णय न करे । मैं ही बता दूं', ये हमारे चरित-नायक गणी
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