Book Title: Amarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 184
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व आवश्यक' पर विस्तार के साथ विचारणा की गई है तथा जिसमें श्रमण-धर्म एवं श्रावकाधर्म का स्वरूप बतलाया है। इसके बाद मूलग्रन्थ प्रारम्भ होता है, जिसमें तीस पाठ हैं । उक्त सभी पाठों पर कवि श्री ने विस्तार के साथ व्याख्या लिखी है । श्रमण साहित्य का यह एक अद्भुत ग्रन्थ है । अन्त में एक विस्तृत परिशिष्ट दिया गया है, जिसमें बहुत-सी ज्ञातव्य बातों का लेखक ने समावेश करके पाठकों पर महान् उपकार किया है। उक्त दोनों पुस्तकों के अध्ययन और मनन से कविश्री जी के गंभीर ज्ञान एवं वहुश्रुतता का पता लगता है। उनकी व्याख्या शैली के कुछ उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ "भारत की प्राचीन संस्कृति-श्रमण' और 'बाह्मण' नामक दो धाराओं में बहती आ रही है। भारत के प्रति समृद्ध भौतिक जीवन का प्रतिनिधित्व ब्राह्मण-धारा करती है और उसके उच्चतम आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व श्रमण-धारा करती है। यही कारण है कि जहाँ ब्राह्मण संस्कृति ऐहिक सुख-समृद्धि, भोग एवं स्वर्गीय सुख की कलाओं तक ही अटक जाती है, वहाँ श्रमण संस्कृति त्याग के मार्ग पर चलती है, मन की वासनाओं का दलन करती है, स्वर्गीय सुखों के प्रलोभन तक को ठोकर लगाती है और अपने बन्धनों को तोड़कर पूर्ण, सच्चिदानन्द, अजर-अमर, परमात्म-पद को पाने के लिए संघर्ष करती है । ब्राह्मण संस्कृति का त्याग भी भोग-मूलक है, और श्रमण संस्कृति का भोग भी त्याग-मूलक है। ब्राह्मण संस्कृति के त्याग में भोग की ध्वनि ही ऊँची रहती है और श्रमण संस्कृति के भोग में त्याग की ध्वनि । संक्षेप में यह भेद है-श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति का, यदि हम तटस्थ-वृति से कुछ विचार कर सकें।" . "जैन-धर्म के मूल तत्त्व तीन हैं-देव, गुरु और धर्म । तीनों ही नमस्कार मन्त्र में परिलक्षित हैं । अरिहन्त जीवन-मुक्त रूप में और सिद्ध विदेह-मुक्त रूप में आत्म-विकास की पूर्ण दशा-परमात्मदशा पर पहुँचे हुए हैं। अतः पूर्ण रूप से पूज्य होने के कारण देवत्व कोटि में गिने जाते हैं। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु-आत्मविकास की अपूर्ण अवस्था में हैं, परन्तु पूर्णता के लिए प्रयत्नशील हैं। अतः अपने से निम्न श्रेणी के साधक मात्माओं के पूज्य और

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