Book Title: Amarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 185
________________ १७७ बहुमुखी कृतित्व अपने से उच्च श्रेणी के अरिहन्त सिद्ध स्वरूप देवत्व-भाव के पूजक होने से गुरु कोटि में सम्मिलित किए गए हैं। सर्वत्र व्यक्ति से भाव में लक्षणा है । अतः अहं भाव, सिद्ध भाव, आचार्य भाव, उपाध्याय भाव, साधु भाव का ग्रहण किया जाता है। अरिहन्तों को क्या नमस्कार ? अर्हद् भाव को नमस्कार है। इसी प्रकार अन्यत्र भी भाव ही नमस्कार का लक्ष्य-विन्दु है, और यह भाव ही धर्म है। अहिंसा और सत्य आदि आत्म-भाव. पाँच पदों के प्राण हैं। अतः. नमस्कार मन्त्र में धर्म का अन्तर्भाव भी हो जाता है, उसे भी नमस्कार कर लिया जाता है।" "सामायिक का अर्थ है-समता। वाह्य दृष्टि का त्याग कर अन्तष्टि द्वारा आत्म-निरीक्षण में मन को जोड़ना, विषम-भाव का त्याग कर सम-भाव में स्थिर होना, राग-द्वेष के पथ से हटकर सर्वत्र सर्वदा करुणा एवं प्रेम के पथ पर विचरना, सांसारिक पदार्थों का यथार्थ स्वरूप समझ कर उन पर से ममता एवं आसक्ति का भाव हटाना और ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप आत्म-स्वरूप में रमण करना- सामायिक है, समता है, त्याग है, वैराग्य है । अन्धकारपूर्ण जीवन को आलोकित करने का इससे अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता। सामायिक का पथ आसान नहीं है, यह तलवार की धार पर धावन है । जव तक निन्दा-प्रशंसा में, मान-अपमान में, हानि-लाभ में, स्वजन-परजन में, एकत्व बुद्धि-समत्व-बुद्धि नहीं हो जाती, तब तक सामायिक का पूर्ण आनन्द नहीं उठाया जा सकता। प्राणिमात्र पर, चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो, मित्र हो या शत्रु हो-सम-भाव रखना कितना ऊंचा आदर्श है, कितनी ऊंची साधुता है ! जव तक यह साधुता न हो, तब तक खाली वेष लेकर जन-वञ्चन से क्या लाभ ?" "भूलों के प्रति पश्चात्ताप का नाम जैन परिभाषा में 'प्रतिक्रमण' है। यह प्रतिक्रमण मन, वचन और शरीर-तीनों के द्वारा किया जाता है । मानव के पास तीन ही शक्तियाँ ऐसी हैं, जो उसे बन्धन में डालती हैं और वन्धन से मुक्त भी करती हैं। मन, वचन और शरीर से वाँधे गए पाप मन, वचन और शरीर के द्वारा ही क्षीण एवं नष्ट भी होते हैं । राग-द्वप से दूषित मन, वचन और शरीर बन्धन के लिए होते २३

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