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बहुमुखी कृतित्व
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है, और न पूर्व-जन्म की गठरी ही वांधकर साथ में लाई गयी है। मनुष्य तो केवल यह शरीर ही लेकर आया है। वाकी सव चीजें तो उसने यहीं प्राप्त की हैं। उसने प्राप्त अवश्य कर ली हैं, किन्तु उनका सही उपयोग नहीं करता है, बल्कि उनको दवाए बैठा है। न तो अपने लिए, और न दूसरों के लिए ही काम में लाता है, तो यह भी सामाजिक चोरी है।
___ कहने को तो यह चोरी नहीं है और समाज भी इसे चोरी समझने को तैयार नहीं है, परन्तु जैन-धर्म की दृष्टि से यह भी एक प्रकार की चोरी है। समाज से धन इकट्ठा किया और उसे दवाए रखा, सारी जिन्दगी समाप्त हो गई-न अपने लिए, और न दूसरों के लिए ही उसका उपयोग किया, तो यह भी एक प्रकार की चोरी ही है ।
जो व्यक्ति सम्पत्ति पा करके भी उसे प्राणों से लगाए रहता है और आर्त-रौद्र ध्यान में मन को लगाता रहता है, अपनी आध्यात्मिक चेतना को बरावर न करता रहता है और अपनी जिन्दगी में ठीक-ढंग की तैयारी भी नहीं करता है। इन सव सामाजिक, पारिवारिक प्रयोजनों के लिए धन का उपयोग न करके उसे दवाए बैठा रहता है, तो मैं नहीं समझ पाता कि वह व्यक्ति चोरी नहीं करता, तो और क्या करता है ?"
"आज परिवार में, समाज में और संसार में गलत मान्यताएँ और बातें होती हैं, तो लोग चर्चा करते हैं कि गलत परम्पराएँ चल रही हैं । लोग खिन्न होते हैं और वेदना का अनुभव करते हैं। जव उनसे कहा जाता है कि आप उनका विरोध क्यों नहीं करते, तो झटपट 'किन्तु' और 'परन्तु' लगने लगता है। विवाह-शादियों में में अत्यधिक खर्च होता है और इससे हर परिवार को वेदना है, किन्तु जव चर्चा चलती है, तो कहा जाता है कि–'वात तो ठीक है, किन्तु क्या करें?
राष्ट्रीय चेतना में भी गड़बड़ है। राष्ट्र के नेताओं और कर्णधारों के साथ विचार करते हैं, तो वे भी यही कहते हैं-'वात तो ठीक है आपकी, परन्तु क्या करें ?'