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बहुमुखी कृतित्व
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विश्व के साहित्य में, विशेषतः भारतवर्ष के साहित्य में जैनसाहित्य का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है। जैन-धर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्राचार्यो ने न्याय, व्याकरण, धर्म-शाम्ब आदि प्रत्येक विषय पर वह विपुल ग्रंय-राशि निर्माण की है, जो मानव-जाति के प्रति एक अनुपम एवं हितकर भेंट कही जा सकती है। वस्तुतः जैन-विद्वानों की बुद्धि की चमत्कृति, पाण्डित्य की गरिमा, विचार-शीलता की पराकाष्ठा, कल्पना-शक्ति की अतुलता, हृदय की उदारता और प्राणिमात्र के हित की भावना कोटि-कोटि वार अभिवन्दनीय है।
जैन-साहित्य, इने-गिने बुद्धिजीवी लोगों के मनोरंजन के लिए केवल शब्द-जाल लेकर नहीं आया है। उसमें मानव-संस्कृति का प्रतिविम्ब पूर्ण-रूपेण उतर आया है । वह मानव-जाति के समक्ष बड़े ही उदात्त तथा भव्य विचार उपस्थित करता है। यह जैन-साहित्य को ही गर्व है कि उसने सदा से मानव-जाति को स्नेह, प्रेम, सौहार्द्र एवं मैत्री-भावना का अमर सन्देश दिया है। साम्प्रदायिक दुराग्रह तथा जातीय उच्च-नीचता के संघर्ष का वह कट्टर विरोधी रहा है। विश्वकल्याण की भावना से जैन-साहित्य का अक्षर-अक्षर आप्लावित है। साहित्य के शाब्दिक अर्थ में वह-"हितेन सह सहितम्, तस्य भावः साहित्यम्" है । साहित्य का मूल अर्थ है—'हित करने वाला.।'
परन्तु खेद है, कि आज का जैन-समाज अपने इस सर्वश्रेष्ठ साहित्य के प्रति वहुत ही भयंकर उपेक्षापूर्ण व्यवहार कर रहा है। प्राचीन साहित्य का सुन्दर प्रकाशन और नवीन साहित्य का सुन्दर निर्माणदोनों ही अोर से लापरवाही बरती जा रही है। यही कारण है कि जैन-समाज के लिए वह अपना पुराना गौरव, आज केवल स्वप्न जैसा हो गया है। आज हम कहाँ हैं ? संसार में हमारा कौन-सा स्थान है ? अभ्युदय के सर्वोच्च शिखरों पर विचरण करने वाला जैन-समाज आज सर्वथा छिन्न-भिन्न हो गया है, साम्प्रदायिक दलवन्दियों में पड़कर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है । न आज उसकी कोई संस्कृति है, और न कोई सभ्यता। पूर्वकाल के वे महान् अादर्श आज जिस प्रकार अधस्तन हो गए हैं, उन्हें देखकर हृदय को बड़ी भीषण ठेस पहुँचती है।