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व्यक्तित्व और कृतित्व में एक-सौ आठ दाने ही होने चाहिए। न कम, न अधिक । माला में एक-सौ आठ दाने नवकार मन्त्रोक्त पञ्च परमेष्ठी पदों के एक-सौ आठ गुणों के द्योतक हैं।"
____ कवि श्री जी ने साधना के उपकरणों की परिशद्धि के विषय पर भी काफी लिखा है। हमारी साधना में हमारे शरीर का भी उपयोग होता है। शरीर को सशक्त रखने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। साधना में भोजन कैसा और कितना होना चाहिए ? इसका परिज्ञान भी साधक को अवश्य होना चाहिए शरीर को साधने के लिए विभिन्न आसनों की आवश्यकता है, और मन को साधने के लिए ध्यान की। कविश्री जी ने अपनी पुस्तक में 'आसन और ध्यान' पर बहुत ही सुन्दर लिखा है । मन्त्र-जप की पद्धति के विषय में भी प्रकाश
डाला गया है । जवकि साधना के विषय में लिखते हुए कविश्री जी ने . जप के तीन भेद बताए हैं, जो इस प्रकार हैं. जप के मुख्यतया तीन भेद हैं—मानस, उपांशु और भाष्य ।
- मानस-जप-वह है, जिसमें मन्त्रार्थ का चिन्तन करते हुए मात्र . मन से ही मन्त्र के वर्ण, स्वर और पदों की वार-बार आवृत्ति की जाती है।
उपांशु-जप-इसमें कुछ-कुछ जीभ और होंठ चलते हैं, अपने कानों तक ही जप की ध्वनि सीमित रहती है, दूसरा कोई सुन नहीं सकता।
भाष्य-जप-वाणी के द्वारा स्थूल उच्चारण है। इसमें पास-पास रहने वालों को भी जप की ध्वनि सुनाई पड़ती है। प्राचार्यों ने सव से श्रेष्ठ मानस-जप को बतलाया है। उनका कहना कि भाष्य-जप से सौ गुना उपांशु और सहस्र गुना मानस जप का फल है। साधक का कर्तव्य है कि वह क्रमशः शक्ति बढ़ाता हुआ भाष्य, उपांशु और मानसजप का अभ्यास करे।" .
महामन्त्र नवकार के सम्बन्ध में जो भी कुछ ज्ञातव्य और उपादेय है, वह सव इस पुस्तक में संक्षेप में देने का प्रयत्न किया गया है। महामन्त्र नवकार, जो कि 'जिन वाणी' का सार है, उसकी साधना के सम्बन्ध कविश्री जी ने प्रस्तुत पुस्तक में बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है । मन्त्र-साहित्य में, भले ही यह पुस्तक छोटी ही क्यों न हो, किन्तु कवि श्री जी की एक सुन्दर और महत्त्वपूर्ण कृति है।