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व्यक्तित्व और कृतित्व
"अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण वज्झयो । अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेह
॥"
—उत्तराध्ययन
"अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिए। बाहरी शत्रुत्रों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ? आत्मा के द्वारा आत्म-जयी होने वाला ही वास्तव में पूर्ण सुखी होता है ।"
" संवुज्झह किं न वुज्झह, संवोही खल पेच्च दुल्लहा । नो हूवणमंति राइयो, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ "
—सूत्रकृतांग
"मनुष्यो ! जागो, जागो ! अरे, तुम क्यो नहीं जागते ? परलोक में ग्रन्तर्जागरण प्राप्त होना दुर्लभ है । वीती हुई रात्रियाँ कभी लौट कर नहीं आतीं । मानव जीवन पुनर्वार पाना आसान नहीं । "जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ, सममणइ तेण स समणो ॥ "
— अनुयोगद्वार - सूत्र
"जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है—यह समझकर जो न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है, वही श्रमण है, भिक्षु है ।"
इसी प्रकार कवि श्री जी की एक अन्य पुस्तक 'जिन-वाणी' भी जो भी अप्रकाशित है, एक बहुत सुन्दर पुस्तक है, जिसमें विभिन्न शास्त्रगत गाथाओं का सुन्दर अनुवाद किया गया है । अनुवाद के क्षेत्र में कवि श्री जी ने जो काम किया है, वहुत ही उपादेय और सुन्दर है । कवि श्री जी की अनुवाद - कला अपने आप में एक सुन्दर कला है ।