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कहानी-कला
कल्पना-सापेक्ष गद्य-काव्य का एक रूप उपन्यास है और दूसरा कहानी । प्रारम्भ में कहानी का साहित्यिक मूल्य नहीं था। घरेलू जीवन में कहने के कारण इसका नाम 'कहानी' पड़ गया। किन्तु आज कहानी का स्वतंत्र रूप कलात्मक अस्तित्व है। उपन्यास और कहानी के तत्त्व समान ही हैं । किन्तु जिस प्रकार एकांकी और खंड-काव्य क्रमशः नाटक और महाकाव्य का एक अंश या भाग नहीं कहलाते, उसी प्रकार कहानी भी स्वतंत्र और स्वतः पूर्ण कलाकृति है। उपन्यास में जीवन के सर्वागीण और बहुमुखी चित्र विस्तार पूर्वक दिखाए जाते हैं, अनेक प्रासंगिक घटनाओं और पात्रों के लिए भी उसमें स्थान रहता है। एक उपन्यासकार मुख्य कथावस्तु के अतिरिक्त प्रकृति-वर्णन और सामाजिक रहन-सहन आदि का भी वर्णन करके पाठकों को रस-मग्न करने की सुविधाएँ रखता है । परन्तु कहानीकार इतना स्वतंत्र नहीं है । वह अपनी मंजिल तक विना विश्राम किए सीधा पहुँचना पसन्द करता है। उसके पास इतना समय तो नहीं होता । कहानी के लिखने और पढ़ने में एक बैठक पर्याप्त समझी जाती है । वह उपन्यासकार के समान विशाल किन्तु विहंगम दृष्टि से जीवन को नहीं देखता, अपितु उसके एक महत्वपूर्ण भाग को गहरी और तीव्र दृष्टि से देखकर अपनी कल्पना से उसका मार्मिक संक्षिप्त चित्र चित्रित कर देता है।
कहानी विकास-शील कलाकृति है । अतः इसकी निश्चय परिभाषा देना कठिन है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने कहानी का भिन्न-भिन्न लक्षण दिया है । प्रेमचन्द-"जीवन के किसी एक अंग या मानव के एक भाव