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वहुनुखी कृतित्व
१६३ अतीव गौरवशाली दिन माना जाता है । जैन-इतिहास ही नहीं, भारत के इतिहास में भी यह दिन स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है । डूबती हुई भारत की नैया के खिवैया ने आज के दिन ही हमारे पूर्वजों को सर्वप्रथम शिशु के रूप में दर्शन दिए थे।"
"वालक महावीर का नाम माता-पिता के द्वारा 'वर्द्धमान' रखा गया था। परन्तु आगे चलकर, जव वे अतीव साहसी, दृढ़-निश्चयी और विघ्न-बाधाओं पर विजय पाने वाले महापुरुषों के रूप में संसार के सामने आए, तव से आप 'महावीर' के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुए।"
"एक वार की बात है कि देवराज इन्द्र प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए। भगवान् ध्यान में थे, वड़ी नम्रता के साथ इन्द्र ने प्रार्थना की
"भगवन् ! आपको अवोध जनता वड़ी पीड़ा पहुँचाती है । वह नहीं जानती कि आप कौन हैं ? वह नहीं समझती कि आप हमारे कल्याण के लिए ही यह सब कुछ कर रहे हैं। अतः भगवन्, आज से यह सेवक श्री जी के चरण-कमलों में रहेगा। आपको कभी कोई किसी प्रकार का कष्ट न दे, इसका निरन्तर ध्यान रखेगा।"
"देवराज ! यह क्या कह रहे हो ? भक्ति के आवेश में सचाई को नहीं भुलाया जा सकता। अगर कोई कष्ट देता है तो दे, मेरा इसमें क्या विगड़ता है ? मिट्टी के शरीर को हानि पहुँच सकती है, परन्तु आत्मा तो सदा अच्छेद्य और अभेद्य है। उसे कोई कैसे नष्ट कर सकता है ?"
"भगवन् ! आप ठीक कहते हैं। परन्तु शरीर और आत्मा कोई अलग चीज थोड़े ही हैं । आखिर, शरीर की चोट आत्मा को भी ठेस तो पहुँचाती ही है-यह तो अनुभव-सिद्ध बात है।"
___ "परन्तु यह अनुभव तुम्हारा अपना ही तो है न ? मेरा तो नहीं ? आत्मा और शरीर के द्वैत को मैंने भली-भांति जान लिया है । फलतः किसी भी पीड़ा से मैं प्रभावित होऊँ, तो क्यों ?"