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बहुमुखी कृतित्व
१५५ ३. कौतुहल-इस अवस्था में कथावस्तु विकसित होकर कौतूहल को जन्म देती है। जिज्ञासा का भाव फिर क्या हुआ ? पाठक के मन को बेचैन वनाने लगता है। इस अवस्था को 'कौतूहल' इसलिए कहा जाता है, कि कथावस्तु विकास की अवस्था को पहुँच कर शीघ्र ही घात-प्रतिघात के घटना-चक्रों से गुजर कर अनेक उलझनों को समेटती हुई कौतूहल को जागृत करती है।
४. चरम-सीमा-जब कौतूहल पात्रों की विभिन्न परिस्थितियों और उनके वाह्य अथवा अन्तर्द्वन्द्वों में प्रकट होकर कथा को गतिशील बना देता है, तव एक प्रकार की 'अनिश्चितता का क्षण' पाठक को उत्सुक बनाकर उसकी संवेदना को तीव्र कर देता है। कहानी की सफलता का रहस्य इसी अवस्था में छिपा होता है। यह 'चरमसीमा' ही कथावस्तु का अन्तिम मोड़ होता है, जिसमें उत्सुकता या कौतूहल अपने पूर्ण वेग से दौड़ कर सहसा एक स्थान पर रुक . जाता है।
५. समाप्ति-जिस प्रकार सागर का तूफान अपनी पूरी मस्ती में झूम कर अचानक थक जाता है, उसी प्रकार चरम-सीमा पर पहुँच कर कहानी की 'समाप्ति' हो जाती है । उपन्यास के समान कहानी में 'चरम-सीमा' के वाद 'उतार' की परिस्थिति नहीं आती।
पात्र-कहानी में पात्रों की संख्या थोड़ी होती है । कभी-कभी तो केवल दो पात्रों से भी काम चल जाता है। अतः कहानीकार किसी एक ही प्रधान पात्र का चरित्र लेकर उसके संवाद, क्रिया-कलाप आदि के द्वारा उसको अभिव्यक्त करता है। सभी पात्रों का पूर्ण चरित्र-चित्रण कहानी में असंभव है। अतः कहानी लेखक व्यंजना की सहायता से वहत थोड़े में ही शक्तिशाली चरित्र का निर्माण करता है । अन्तर्द्वन्द्व दिखला कर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की ओर भी आजकल अधिक बल दिया जाता है । चरित्र-चित्रण में लेखक नाटकीय और विश्लेषणात्मक-दोनों शैलियों से काम ले सकता है। किन्तु कहानीकार का स्वयं पात्रों के चरित्र का विश्लेषण करना इतना अधिक वांछनीय नहीं समझा जाता। पात्रों के संवादों और क्रिया-कलापों के द्वारा ही उनका पात्र स्वतंत्र रूप से विकसित हो जाना चाहिए ।