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बहुमुखी कृतित्व ... .. एक अध्यात्म-अनुसन्धान, दूसरा भौतिक अनुसन्धान । अन्दर की खोज,
और वाहर की खोज । पहला दर्शन कहा जाएगा, और दूसरा विज्ञान । परन्तु प्राख़िर.धर्म, दर्शन और विज्ञान तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं, विघटक नहीं। इस अर्थ में वे तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं; विघटक नहीं। इस अर्थ में वे तीनों एक-दूसरे से सम्बद्ध ही कहे जा सकते हैं।"
"सव के उदय का, सब के उत्कर्ष का अर्थ यही है कि कोई भी सुख किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए न होकर, सव के लिए हो । - सुख ही नहीं, मानव को दुःख भी बाँटना होगा। तभी समाज में समत्व
योग का प्रसार सम्भवित है। जब तक एक वर्ग दूसरे वर्ग का अथवा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण करता है, तब तक सच्चे अर्थ में सर्वोदय का समवतार नहीं माना जा सकता, और न तब तक सामाजिक न्याय ही सम्भव है.। एक की समृद्धि दूसरे के शोषण पर खड़ी नहीं होनी चाहिए। प्रकाश को अपने साम्राज्य का भव्य प्रसार अन्धकार की नींव पर खड़ा करते किसने देखा है ? क्या प्रकाश अन्धकार को अपना आधार बना सकता है ? यदि नहीं, तो शोषण के आधार पर सुख कैसे खड़ा रहेगा ? जब तक समाज में, राष्ट्र में और व्यक्ति में .भी. शोषण-वृत्ति का अस्तित्व किसी भी. अंश में है, तब तक वहाँ सर्वोदय टिक ने सकेगा। सर्वोदय की व्यवस्था में शोषक-शोषक न रहेगा और शोषित-शोषित न रहेगा। सर्व प्रकार के शोषण के विरुद्ध सर्वोदय का एक ही नारा है-"हम शोषक का अन्त नहीं, शोषण-वृत्ति का ही अंन्त करना चाहते हैं । जब समाज में, राष्ट्र में, व्यक्ति में शोषणवृत्ति ही न रहेगी, तब शोषण का अस्तित्व ही न, रहेगा।" सुख दुःख
में, और दुःख-सुख में पच जाएगा। तभी व्यक्ति का, समाज का और . राष्ट्र का सभी का उदयं होगा।" ...... .: .
. : "विचार और विकार-दोनों की उत्पत्ति का केन्द्र स्थल 'मानव-मन है । विकार से 'पतन और विचार से 'उत्थान होता हैं। . • दूसरों के प्रति विद्वेष की भावना रखना, 'मानव-मन का विकार है।
सर्वोदय, विकार को विचार में बदलने की एक कला है। जन-जीवन में दिव्य विचारों का प्रसार करना भी सर्वोदय का एक अपना उदात्त विचार.ही है। समाज के उत्थान के लिए और व्यक्ति के उत्कर्ष के लिए केवल दिव्य विचारों का प्रसार करके ही सर्वोदय विरत नहीं हो .