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बहुमुखी कृतित्व
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"अठारह वर्ष का वह बिल्कुल नया उभरता हुआ यौवन, सुगठित और सुदृढ़ शरीर ! अंग-अंग में वानर हनुमान की सी स्फूर्ति ! जव भी उपाश्रय में ग्रा जाता, बड़ा भला लगता था ।' जिस किसी के भी परिचय में ग्रा जाता, वह भूलता न था । ग्राज के युग में, फिर कालेज की शिक्षा में, इस पर भी धनीमानी घर का लाड़ला सुपुत्र होकर भाग्य से ही कोई युवक सत्य पथ पर चलता है ! परन्तु हमारा राजेन्द्र यह सब कुछ होकर भी व्यर्थ की झंझटों और बुरी आदतों से परे था । न वह सिगरेट-बीड़ी पीता था, न वह किसी अन्य मटर गश्ती में रहता था । नहीं पता, वह पूर्व जन्म से क्या संस्कार लेकर ग्राया था कि प्रारम्भ से ही, होश संभालते ही साहित्य के प्रति अनुराग रखने लग गया था।
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दो-एक बार मुझे वह ग्रागरा कालिज के के साथियों के साथ मिला है । ज्यों ही वह हम श्रद्धा से चरण छूकर वन्दना करता । उसे संकोच नहीं होता कि मैं इन नटखट कालेजियट साथियों के सामने यह क्या कर रहा है ? आज के हमारे नवयुवकों में यह दबंगपन बहुत कम हो गया है । साथियों के साथ होते हुए इस प्रकार चरण-स्पर्श करना, उनके लिए लज्जा की बात है । मैं समझता हूँ, राजेन्द्र का प्रादर्श उन युवकों के लिए अनुकरण की चीज है ।"
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बाहर, अपने कालिज मुनियों को देखता,
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"श्रद्धेय प्यारचन्द जी महाराज के साथ मेरा प्रथम परिचय ग्रजमेर सम्मेलन के अवसर पर हुआ था, परन्तु वह एक अल्प परिचय था । उनके मधुर व्यक्तित्व का स्पष्ट परिचय लोहामंडी - श्रागरा में हुआ था, जब कि वे अपने पूज्य गुरुदेव दिवाकर जी महाराज की सेवा में थे और कानपुर का वर्षावास समाप्त करके आगरा लौटे थे । उस अवसर पर मैं भी दिल्ली से आगरा आया था । कतिपय दिवसों का वह मधुर मिलन आज भी मेरे जीवन की मधुर संस्मृतियों में से एक है, जिसको भूलना भुलाना सहज सरल नहीं है । वे मधुर क्षण, जिन्होंने गहन परिचय की आधारशिला बनकर दो व्यक्तियों को निकट से निकटतर लाने का महान् कार्य किया— कैसे भुलाए जा सकते हैं ?"
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