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बहुमुखी कृतित्व
सिन्धु में । अतएव हमारा लक्ष्य इस प्रारम्भिक पार्श्व पर न होकर उस अन्तिम पार्श्व पर होना चाहिए। और जव यह लक्ष्य स्थिर हो जाएगा तब-'मेरा सो सच्चा' .. का मिथ्याभिमान नष्ट हो जाएगा। उस समय हमारा महान् आदर्श सिद्धान्त होगा 'सच्चा सो मेरा ।' हजारों वर्षों से मानव-जाति में द्वन्द्व और कलह मचाने वाली धार्मिक असहिष्णुता, अनुदारता और संकीर्णता को जड़ से उखाड़ फेंकने वाला यही आदर्श सिद्धान्त है।"
"अाज का युग मानव-जाति के लिए सर्वनाश का युग हो रहा है। मिथ्या आहार-विहार और मिथ्या आचरण ने मानवता को चकनाचूर कर दिया है। क्या राष्ट्र, क्या धर्म, क्या जाति और क्या परिवारसव-के-सव पारस्परिक अविश्वास के शिकार हो रहे हैं। और तो क्या, एक रक्त की सर्वथा निकटस्थ सन्तान-भाई-भाई भी एक-दूसरे के पिपासु बन गए हैं। इन भयंकर धधकती ज्वालाओं का शमन सत्य की सच्ची उपासना के विना नहीं हो सकता। उपनिषद् काल के एक महर्षि का अमर स्वर आज भी हमारे कानों में गूंज रहा है
"असतो मा सद् गमय,
तमसो मा ज्योतिगमय, . ___ मृत्योर्माऽमृतं गमय ।"
"भगवान् महावीर ने उक्त एकान्तवादों के संघर्प की समस्या को बड़ी अच्छी तरह सुलझाया है। संसार के सामने भगवान् ने समन्वय की वह वात रखी है, जो पूर्णतया सत्य पर आधारित है। महावीर का कहना है कि पांचों ही वाद अपने स्थान पर ठीक हैं। संसार में जो भी कार्य होता है, वह इन पांचों के समवाय से, अर्थात् मेल से ही होता है । ऐसा कभी नहीं हो सकता कि एक ही वाद अपने बल पर कार्य सिद्ध कर दे । बुद्धिमान मनुष्य को आग्रह छोड़कर सवका समन्वय करना चाहिए । विना समन्वय किए कार्य में सफलता की आशा रखना दुराशा मात्र है। यह हो सकता है कि कार्य में कोई एक प्रधान हो और दूसरे सब कुछ गोण हों। परन्तु यह नहीं हो सकता कि कोई स्वतंत्र रूप से कार्य सिद्ध कर दे।"