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न्यक्तित्व और कृतित्व
'जनत्व की झांकी', 'प्रादर्श-कन्या', 'आवश्यक-दिग्दर्शन' आदि उनके निवन्धों की परतकें हैं। उक्त पुस्तकों का समाज में काफी प्रचार और प्रसार है । 'जनत्व की झांकी' में धर्म और दर्शन तथा इतिहास-विपयक निवन्ध हैं । 'अावश्यक-दिग्दर्शन' में पालोचनात्मक और गवेषणात्मक निबन्ध हैं। 'आदर्श-कन्या' में जीवन
और समाज-विपयक निवन्ध है। इस प्रकार कवि श्री जी की साहित्यसाधना का यह एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। उनके निवन्धों के कुछ उद्धरण में यहां दे रहा हूँ
"भगवान् महावीर के नौनिहालो, तुम्हारा क्या हाल-चाल है ? जरा सोची-समझो और चालू जमाने की हनचल पर नजर फैको । आज का प्रगतिशील संसार हमें किस प्रकार हिकारत की निगाह से देख रहा है और जैसे-तैसे हमारे सर्वनाश के लिए तुला खड़ा है। समय रहते संभल जाओ, अन्यथा हजारों वर्षो का चला आने वाला अधिकार छिन जाने में कुछ भी देर नहीं है-'उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य बरान्तिबोधत।"
"यह भी क्या वीमारी, कि इधर साधु का वाना लेते देर न हुई और चेले मूड़ने की फिक्र पड़ गई। कौन योग्य है, कौन नहीं ? इसका तनिक भी विचार नहीं, भेड़-बकरियों की तरह बाड़ा भरते जा रहे हो। कभी हृदय पर हाथ रख कर विचारा है कि चेले के नाम से इन कीड़ोंमकोड़ों की झोली भरने में क्या-क्या दम्भ चलाने पड़ते हैं, संयम के कोयले करने पड़ते हैं। याद रखो, इन भरती के रंगरूटों से न तो जैन-धर्म का मुख उज्ज्वल होगा और न तुम्हारा ही। पहले अपने-आप को तो सुधार लो, चेलों का सुधार तो फिर होता रहेगा। धाड़ इकट्ठी करके क्या करोगे? जैसा बने, वैसा कुछ समाज-हित का नया काम करके दिखा जायो, ताकि संसार तुम्हें हजारों शताब्दियों तक अपने हृदय-मन्दिर में देव बनाकर पधराए रखे । 'कार्य को पूजा है, यहां रेवड़ की कुल-पूजा नहीं।"
- "मध्यस्थ दृष्टि हमें यह सिखाती है कि सत्य एक विशाल समुद्र है और जितनी भी विभिन्न साम्प्रदायिक विचार-धाराएं हैं, वे सब छोटी सरिताएं हैं । सरिताएँ कितनी ही टेढ़ी-मेढ़ी क्यों न हों और इधर-उधर चक्कर काटती क्यों न घूमें, परन्तु अन्त में मिलना तो है-उसी महा