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बहुमुखी कृतित्व
११६ . चातुर्य से काम लिया तथा वहाँ अपने अपमान की चिन्ता नहीं की। ऐसे ही गम्भीर सज्जनों का परिचय कवि दे रहा है
"सागर सम गम्भीर सज्जनों का होता है, अन्तस्तल, पी जाते हैं विप-वार्ता भी चित्त नहीं करते चंचल ।"
वसन्तागमन पर प्रकृति-चित्रण में कवि श्री जी के भावों में प्रसाद की 'कामायनी' की झलक देखिए
अमर काव-"रंग-मंच पर प्रकृति नटी के परिवर्तन नित होते हैं" कामायनी-"प्रकृति सेज पर धरा-वधू अव तनिक संकुचित
बैठी सी" कवि श्री जी के काव्य में प्रकृति-चित्रण की भलक भी हमें 'धर्मवीर सुदर्शन' में मिल जाती है। वसन्तागमन पर कवि प्रकृति के बीच हंस पड़ा है। वास्तव में कवि की भावनाएँ कोमल होती हैं और प्रकृति-चित्रण इसका एक अङ्ग होता है । अमर-काव्य में प्रकृति-चित्रण का स्वरूप देखिए. "शीतानन्तर ठाट-बाट से ऋतु वसन्त झुक आया है। मन्द सुगन्धित मलय समीरण मादकत्ता भर लाया है ।। - छोटे-मोटे सभी द्रुमों पर गहरी हरियाली छाई ।
रम्य हरित परिधान पहन कर प्रकृति प्रेयसी मुस्काई ।। रंग-बिरंगे पुष्पों से तरु-लता सभी आच्छादित हैं। भ्रमर निकर झंकार रहे वन-उपवन सभी सुगन्धित हैं ।। __ कोकिल-कुल स्वच्छन्द रूप से आम्र मंजरी खाते हैं।
अन्तर वेधक प्यारा पंचम राग मधुर स्वर गाते हैं ।। अखिल सृष्टि के अण-अणु में नव-यौवन का रङ्ग छाया है। कामदेव का अजव नशा जड़-चेतन पर झलकाया है।"
इसके पश्चात् कवि जी ने कुछ शरदागमन का भी वर्णन किया है। सुदर्शन नारी के मोह-पाश में फंसने वाला कापुरुष नहीं था। वह रानी के प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा देता है—यह समझते हुए कि उसका परिणाम क्या होगा। उसको चंपा का राज-सिंहासन भी मिल जाता, किन्तु एक सच्चा जैन श्रावक होने के कारण उसने सिंहासन को भी लात मार दी, तिलांजलि दे दी और स्वयं अपने धर्म-पालन पर अडिग रहा।