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व्यक्तित्व और कृतित्व की कठिन विपत्ति हमारे लिए कुछ महत्व नहीं रखती—यह मनुष्यता का अपमान है। हरिश्चन्द्र का राज्य छूटा, प्रिया टूटी और पुत्र छूटाकर्तव्य की वेदी पर उसने सर्वस्व का बलिदान किया, चाण्डाल की सेवा-वृत्ति स्वीकार की-उसका यह प्रादर्श चित्र संसार की आँखों में विस्मय भरने में समर्थ हुआ।
अव कवि श्री जी के द्वारा इसी संसार में रहने वाले द्विज-पुत्र का चित्र देखिए
रानी शैव्या पति-ऋण चुकाने में ब्राह्मण परिवार की दासी वनी-कठिन श्रम उठाना स्वीकार किया..."उपेक्षा, घृणा, कट-सद कुछ अपने आशा-धन रोहित पुत्र को सामने रख कर सहने का व्रत लिया । भविप्य की कल्पानाएँ उसके साथ हैं-कभी रोहित उसका उद्धार कर सकेगा" मगर भाग्य-चक्र में रोहित भी उसका साथ छोड़ देता है, काले सर्प का कठिन प्रहार सुकुमार वालक नहीं सह सका। माता का हृदय एक वार ही विदीर्ण हो गया-उसकी यह करुण चीत्कार"हा रोहित, हा पुत्र ! अकेली छोड़ मुझे तू कहाँ गया ? मैं जी कर अव बता करूँ क्या, ले चल मुझको जहां गया । पिछला दुख तो भूल न पायी, यह आ वज्र नया टूटा । तारा तू नि गिन कैसी, भाग्य सर्वथा तव फूटा ।"
-की ध्वनि-प्रतिध्वनि किसी भी हृदय को कम्पित कर देने में समर्थ है। मगर द्विज-पुत्र को इससे क्या, तारा उसकी दासी है. उसे सुख पहुँचाने के लिए, अपने रुदन-स्वर से उसका हृदय दुखित करने के लिए नहीं। वह चिल्ला पड़ता है- .
"रोती क्यों है ? पगली हो क्या गया ? कौन-सा नभ टूटा, वालक ही तो था, दासी के जीवन का बन्धन छूटा।"
"क्या उपचार ? मर गया वह तो, मृत भी क्या जीवित होते ? हम स्वामी दासों के पीछे द्रव्य नहीं अपना खोते ।"
यह स्वामित्व, मानवता के लिए कितना बड़ा अभिशाप है ?""""ओह!