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बहुमुखी कृतित्व
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घड़ियों में हरिश्चन्द्र की कर्त्तव्य-निष्ठा और आत्म-गौरव, मानव-श्रद्धा की वस्तु वनकर सामने आती है। वह जीवन धारण के लिए परिश्रम का भोजन प्रात करेगा, क्षत्रिय-धर्म में किसी की दी हुई वस्तु का ग्रहण उसके लिए अनुचित है।
"भिक्षा या अनुचित पद्धति से ग्रहण न करले भोजन भी, . सत्य-धर्म से तन क्या डिगना, डिगता है न कभी मन भी। सत्य कहा है सत्पुरुषों का असि-धारा सा जीवन है, न्याय-वृत्ति से पतित न होते, संकट में न प्रकम्पन है ।"
कवि श्री जी का हृदय हरिश्चन्द्र की कर्त्तव्य-निष्ठा पर मात्र गर्वित होकर ही नहीं रह जाता, वह दुनियाँ के धनी-निर्धन का संघर्ष और उपेक्षा-पीड़ा का जन्म भी अनुभव करता है। इस प्रकार उनकी कल्पना अपनी परिधि बढ़ाकर उन्हें वर्तमान-काल की त्रस्त मानवता का चित्र देखने को वाध्य करती है-वह सर्वहारा दल की ओर से नहींमानवता की ओर से पुकार उठते हैं
"बड़ा दुःख है, वड़ा कष्ट है, धनवालो क्या करते हो ? दीन-दुखी का युदय कुचलते, नहीं जरा भी डरते हो? लक्ष्मी का क्या पता, आज है कल दरिद्रता छा जाए, दो दिन की यह चमक-चाँदनी, किस पर हो तुम गरवाए ?"
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"धन-दौलत पाकर भी सेवा अगर किसी की कर न सका, दया भावना दुःखित दिल के जख्मों को यदि भर न सका। वह नर अपने जीवन में सुख-शान्ति कहां से पाएगा? ठुकराता है जो औरों को, स्वयं ठोकरें खाएगा ।"
'The Prison-y ard' का अमर चित्रकार अपने चित्रों के लिए-'I want to paint humanity, humanity and again humanity' का उत्साह पालता था । 'Humanity' ही अपने उत्कर्प रूप को लेकर मनुष्य को देवता-नहीं, उससे भी ऊपर--का स्थान प्रदान कर सकती है। हम अपने सुख-दुःख को संसार के सुख-दुःख में मिलाकर ही उनका वास्तविक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। करुणा-दया को समझ कर ही मानव अपने-आप को समझ सकता है हम आत्मचिन्तन की घड़ियों में इस पर सोचने का कष्ट क्यों नहीं उठाते ? दूसरों